________________ ये नामभेद प्राकृत भाषाभेद एवं लिपिप्रमाद के कारण हैं। अब हम इन अङ्ग ग्रन्थों के विषयवस्तु की निम्न चार आधारों पर समीक्षा करेंगे / 1. श्वे० ग्रन्थों में प्राप्त उल्लेख, (2) दिग0 ग्रन्थों में प्राप्त उल्लेख, (3) उपलब्ध अङ्ग आगमों का वर्तमान स्वरूप और (4) तुलनात्मक विवरण। अन्त में समस्त ग्रन्थों की समग्ररूप से समीक्षा करते हुए उपसंहार दिया जाएगा। 1-आचाराङ्ग (क) श्वेताम्बर ग्रन्थों में अङ्ग ग्रन्थों को विषयवस्तु का उल्लेख श्वेताम्बर परम्परा में अङ्ग ग्रन्थों की विषयवस्तु का उल्लेख स्थानाङ्ग, समवायाङ्ग, नन्दी और विधिमार्गप्रपा में मिलता है। अतः यहाँ इन्हीं आधारों पर अङ्ग ग्रन्थों की समीक्षा करेंगे 1. स्थानाङ्गसूत्र में -आचाराङ्ग की विषयवस्तु की चर्चा करते हुए उसके ब्रह्मचर्य सम्बन्धी 9 अध्ययनों का उल्लेख किया गया है, जिनमें अन्तिम तीन का क्रम है-विमोह, उपधान और महापरिज्ञा। दस दशा के निरूपणप्रसङ्ग में जो आचारदशा के 10 अध्ययनों का उल्लेख है, वह आचाराङ्ग से सम्बन्धित न होकर दशाश्रुतस्कन्ध से सम्बन्धित है।। 2. समवायाङ्ग में - आचाराङ्ग में श्रमण निर्ग्रन्थों के आचार, गोचर, विनय, वैनयिक, स्थान, गमन, चंक्रमण, प्रमाण, योग-योजन, भाषा, समिति, गुप्ति, शय्या, उपधि, भक्त-पान, उद्गम, उत्पादन, एषणा-विशुद्धि, शुद्धाशुद्धग्रहण, व्रत, नियम, तपोपधान इन सबका सुप्रशस्त कथन किया गया है। वह आचार संक्षेप से 5 प्रकार का है-ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार / अङ्गों के क्रम में यह प्रथम अङ्ग-ग्रन्थ है। इसमें दो श्रुतस्कन्ध हैं, 25 अध्ययन हैं, 85 उद्देशन काल हैं, 85 समुद्देशन काल हैं और 18 हजार पद हैं। परीत (परिमित) वाचनायें हैं, संख्यात अनुयोगद्वार हैं, संख्यात प्रतिपत्तियाँ हैं, संख्यात वेष्टक हैं, संख्यात श्लोक हैं, संख्यात नियुक्तियाँ हैं, संख्यात अक्षर हैं, अनन्त गम हैं, अनन्त पर्यायें हैं, परिमित त्रस हैं, अनन्त स्थावर हैं, शाश्वत, कृत (अनित्य), निबद्ध (ग्रथित) और निकाचित (प्रतिष्ठित) हैं, जिनप्रज्ञप्त भाव हैं, जिनका सामान्य रूप से और विशेष रूप से प्रतिपादन किया गया है, दर्शाया गया है, निदर्शित किया गया है तथा उपदर्शित किया गया है। आचाराङ्ग के अध्ययन से आत्मा ज्ञाता और विज्ञाता हो जाता है। इस तरह इसमें चरण और करण धर्मों की ही विशेषरूप से प्ररूपणा की गई है। इस अन्तिम पैराग्राफ की समस्त बातें सभी 12 अङ्गों के सन्दर्भ में एक ही समान कही गई हैं। समवायाङ्ग के 57वें समवाय के सन्दर्भ में आचाराङ्ग (9+ 15=24 अध्ययन, आचारचूला छोड़कर), सूत्रकृताङ्ग (23 अध्ययन) और स्थानाङ्ग (10 अध्ययन) के अध्ययनों की सम्पूर्ण संख्या 57 बतलाई है। नवम समवाय में आचाराङ्ग के 9 ब्रह्मचर्य अध्ययन गिनाये हैं शस्त्र-परिज्ञा, लोकविजय, शीतोष्णीय, सम्यक्त्व, अवन्ती, धूत, विमोह, उपधानश्रुत और महापरिज्ञा। पच्चीसवें समवाय में चूलिका सहित 25 अध्ययन गिनाये हैं। 3. नन्दीसूत्र में' - आचाराङ्ग में श्रमण निर्ग्रन्थों के आचार, गोचर, विनय, शिक्षा, भाषा, अभाषा, करण, यात्रा, मात्रा (आहार परिमाण) आदि का कथन संक्षेप में है। आचार 5 प्रकार का है-ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तप:आचार और वीर्याचार। अङ्गक्रम और वाचना आदि का समस्त विवेचन समवायाङ्ग की तरह बतलाया है। 4. विधिमार्गप्रपा में2- आचाराङ्ग के 2 श्रुतस्कध बतलाए गए हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध के 9 अध्ययन कहे गए हैं-शस्त्रपरिज्ञा, लोकविजय, शीतोष्णीय, सम्यक्त्व, अवन्ती या लोकसार, धूत, विमोह, उपधानश्रुत और महापरिज्ञा। इसमें महापरिज्ञा को विच्छिन्न बतलाया है जिसमें आकाशगामिनी विद्या का वर्णन था। यहाँ यह भी लिखा है कि शीलांकाचार्य ने महापरिज्ञा को आठवाँ और उपधानश्रुत को नवाँ कहा है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध की 5 चूलायें बतलाई हैं, जिनका अध्ययनों में विभाजन इस प्रकार किया गया है- प्रथम चूला के 7 अध्ययन हैं-पिण्डषणा, शय्या, ईर्या, भाषा, वस्त्रैषणा, पात्रैषणा और अवग्रह-प्रतिमा (उवग्गहपडिमा) / इनमें क्रमश: 11,3,3,2,2,2,2 उद्देशक हैं। द्वितीय चूला के सात अध्ययन हैं (सतसत्तिक्कएहि बीया चूला)- स्थानसत्तिक्कय, निषीधिका-सत्तिक्कय, उच्चारप्रस्रवणसत्तिक्कय, शब्दसत्तिक्कय, रूपसत्तिक्कय, परक्रियासत्तिक्कय और अन्योन्यक्रियासत्तिक्कय। इनके उद्देशक नहीं हैं। तृतीय चूला में भावना' नामक एक ही अध्ययन है। चतुर्थ चूला में “विमुक्ति" नामक एक ही अध्ययन है। इस प्रकार द्वितीय श्रुतस्कन्ध में 16 अध्ययन और प्रथम चूला के सात अध्ययनों के 25 उद्देशक हैं, शेष के उद्देशक नहीं हैं। पञ्चम चूला में निशीथ' नामक एक ही अध्ययन है। इस चूला का आचाराङ्ग से पृथक् कथन किया गया है। यह चूला अब एक स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में मान्य है। 307