________________ धर्मकथाओं के स्वरूप का कथन करते हैं। इसमें उन्नीस धर्मकथायें हैं। 4. अङ्गप्रज्ञप्ति में4 - इसमें 'णाणकहा' तथा 'णाहकहा' दोनों शब्दों का प्रयोग है जिनकी संस्कृत-छाया 'ज्ञातृकथा' तथा 'नाथकथा' की है। पुष्पिका में 'णादाधम्मकहा' लिखा है इसमें 556000 पद हैं। इसे नाथकथा के कथन से संयुक्त कहा है -(नाथ = त्रिलोक स्वामी, धर्मकथा = तत्त्व-सङ्कथन)। इसमें गणधर, चक्रवर्ती और इन्द्र के द्वारा प्रश्न करने पर दश धर्म का कथन या जीवादि वस्तु का कथन है / अथवा ज्ञातृ, तीर्थङ्कर, गणि, चक्रि, राजर्षि, इन्द्र आदि की धर्मानुकथादि का कथन है। (ग) वर्तमान रूप छठे से ग्यारहवें तक के कथा-प्रधान अङ्ग-ग्रन्थों में सुधर्मा और जम्बू स्वामी के लिए अनेक विशेषणों का प्रयोग किया गया है। क्रिया पद अन्यपुरुष में है जिससे लगता है कि इनका रचयिता स्वयं सुधर्मा या जम्बू स्वामी नहीं है अपितु उनको प्रमाण मानकर किसी अन्य व्यक्ति ने रचना की है। इस कथा-ग्रन्थ की मुख्य और अवान्तर कथाओं में आई हुई अनेक घटनाओं से तथा विविध प्रकार के वर्णनों से तत्कालीन इतिहास और संस्कृति की जानकारी प्राप्त होती है। इसके दो श्रुतस्कन्ध हैंप्रथम श्रुतस्कन्ध इसमें 19 अध्ययन हैं- (1) उत्क्षिप्त (मेघकुमार की कथा), (2) सङ्घाटक (धन्नासेठ), (3) अण्डक (चम्पानगरीवर्णन तथा मयूर-अण्डकथा), (4) कूर्म (वाराणसी नगरी-वर्णन तथा कछुआ की कथा), (5) शैलक (द्वारकावर्णन तथा शैलक की कथा), (6) तुम्बक (राजगृह का वर्णन), (7) रोहिणीज्ञात (वधू रोहिणी की कथा), (8) मल्ली (19वें तीर्थङ्कर की कथा), (9) माकन्दी (वणिक पुत्र जिनपालित और जिनरक्षित की कथा), (10) चन्द्र, (11) दावद्रव (दावद्रव समुद्र तट पर स्थित वृक्ष की कथा), (12) उदकज्ञात (कलुषित जलशोधन), (13) मण्डुक ज्ञात या द१रज्ञात (नन्द के जीव मेढ़क की कथा), (14) तेतलिपुत्र, (15) नन्दीफल, (16) द्रौपदी, (17) आकीर्ण (जङ्गली अश्व), (18) सुसुमा (सेठ कन्या) और (19) पुण्डरीक। इन कथाओं में कथा को अपेक्षा उदाहरण पर विशेष बल दिया गया द्वितीय श्रुतस्कन्ध-विषय और शैली की दष्टि से यह प्रथम श्रुतस्कन्ध की अपेक्षा भिन्न प्रकार का है। इसमें धर्मकथाओं के 10 वर्ग हैं जिनमें चमर, बलि, चन्द्र, सूर्य, शक्रेन्द्र, ईशानेन्द्र आदि देवों की पटरानियों के पूर्वभव की कथायें हैं। इन पटरानियों के नाम उनके पूर्वभव (मनुष्य भव) की स्त्रीयोनि से सम्बन्धित हैं। जैसे काली, रजनी, मेघा आदि। (घ) तुलनात्मक विवरण यद्यपि तत्त्वार्थवार्तिक में अनेक आख्यान-उपाख्यान कहे हैं परन्तु जयधवला में ज्ञाताधर्म की 19 धर्मकथाओं के कथन का उल्लेख मिलता है जो सम्भवतः 19 अध्ययनों का द्योतक है। इससे तथा श्वे० ग्रन्थों के उल्लेख से एक बात ज्ञात होती है कि मूलत: इसमें 19 अध्ययन रहे होंगे। धर्मकथाओं के 10 वर्ग हैं जिनमें 33 करोड़ कथायें हैं' इत्यादि कथन अतिरञ्जनापूर्ण है। इन 10 धर्मकथाओं का स्थानाङ्ग में कोई उल्लेख भी नहीं मिलता है। श्वे० ग्रन्थोक्त संख्यात सहस्र पदसंख्या अनिश्चित है जबकि दिग0 ग्रन्थों में एक निश्चित पदसंख्या का उल्लेख किया गया है। समवायाङ्गोक्त 29 उद्देशन और 29 समुद्देशन काल में सम्भवतः 19 अध्ययन और 10 धर्मकथाओं के वर्ग को जोड़कर 29 कहा है जबकि नन्दी में मात्र 19 उद्देशन और 19 समुद्देशन काल कहे हैं। "ज्ञाता" शब्द का अर्थ "उदाहरण" ऐसा जो टीकाकार अभयदेव ने लिखा है वह प्राप्त किसी भी उद्धरण से सिद्ध नहीं है। ऐसा उन्होंने सम्भवत: उपलब्ध आगम के साथ समन्वय करने का प्रयत्न किया है अन्यथा यह ज्ञातवंशी (दिग0 नाथवंशी) भगवान महावीर की धर्मकथाओं से सम्बन्धित रहा है। ऐसा दिग0 ग्रन्थों से स्पष्ट है। जब इस अङ्ग ग्रन्थ के नाम के शब्दार्थ पर विचार करते हैं तो देखते हैं कि दिग0 इसे नाथधर्मकथा (णाहधम्मकहा) कहते हैं और श्वे० ज्ञातृधर्मकथा (णायाधम्म कहा) 'ज्ञात' से श्वेताम्बर-मान्यतानुसार ज्ञातृवंशीय महावीर का तथा 'नाथ' से दिगम्बरमान्यतानुसार नाथवंशीय महावीर का ही बोध होता है। अतः भगवान महावीर से सम्बन्धित या उनके द्वारा उपदिष्ट धर्म कथाओं का हो सञ्चयन इसमें होना चाहिए। धर्मच्युतों को पुन: धर्माराधना में संस्थापित करना उन कथाओं का उद्देश्य रहा है ऐसा समवायाङ्ग और नन्दी के उल्लेखों से स्पष्ट है। समवायाङ्ग से ज्ञात होता है कि इसमें तीन प्रकार की कथायें थीं(1) पतितों की, (2) दृढ़ धार्मिकों की और (3) धर्ममार्ग से विचलित होकर पुनः धर्ममार्ग का आश्रय लेने वालों की। 315