________________ नन्दन, नन्द, चिलातपुत्र और कार्तिकेय। (ग) वर्तमान रूप उपपाद जन्म वाले देव औपपातिक कहलाते हैं। विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि के वैमानिक देव अनुत्तर (श्रेष्ठ) कहलाते हैं। अत: जो उपपाद जन्म से अनुत्तरों में उत्पन्न होते हैं, उन्हें अनुत्तरौपपातिक कहते हैं। इस तरह इसमें अनुत्तरों में उत्पन्न होने वाले मनुष्यों की दशा का वर्णन हैं। इसके तीन वर्ग हैं जिनमें 33 अध्ययन हैं प्रथम वर्ग-जालि, मयालि, उपजालि, पुरुषसेन, वारिषेण, दीर्घदन्त, लष्टदन्त, वेहल्ल, वेहायस और अभयकुमार से सम्बन्धित 10 अध्ययन हैं। द्वितीय वर्ग-दीर्घसेन, महासेन, लष्टदन्त, गुढदन्त, शुद्धदन्त, हल्ल, दुम, दुमसेन, महाद्रुमसेन, सिंह, सिंहसेन, महासिंहसेन और पुष्पसेन से सम्बन्धित 13 अध्ययन हैं। तृतीय वर्ग-धन्यकुमार, सुनक्षत्रकुमार, ऋषिदास, पेल्लक, रामपुत्र, चन्द्रिक, पृष्टिमातृक, पेढालपुत्र, पोट्टिल्ल और वेहल्ल से सम्बन्धित 10 अध्ययन हैं। (घ) तुलनात्मक विवरण दिगम्बर उल्लेखों से ज्ञात होता है कि इस ग्रन्थ में अन्तकृत-दशा की तरह 24 तीर्थङ्करों के तीर्थ में होने वाले 1010 अनुत्तरौपपादिकों का वर्णन है। भगवान महावीर के काल के जिन अनौपपादिकों के नामों का उल्लेख दिगम्बर ग्रन्थों में मिलता है उनमें से 5 नाम स्थानाङ्ग में शब्दशः मिलते हैं। स्थानाङ्ग और समवायाङ्ग में इसके 10 अध्ययनों का उल्लेख है। स्थानाङ्ग में नाम गिनाए हैं और समवायाङ्ग में नहीं। इसके अतिरिक्त समवायाङ्ग में तीन वर्गों का भी उल्लेख है परन्तु उद्देशन और समुद्देशन काल 10 ही बतलाया है जो चिन्त्य है। नन्दी में अध्ययनों का उल्लेख ही नहीं है उसमें तीन वर्ग और तीन उद्देशन कालादि का ही कथन है। विधिमार्गप्रपा में तीन वर्गों के साथ उसके 33 अध्ययनों का भी निर्देश है जिनका वर्तमान आगम के साथ साम्य है। वर्तमान ग्रन्थ में केवल 3 नाम ऐसे हैं जो स्थानाङ्ग और दिग0 ग्रन्थों में एक साथ उक्त हैं। पद संख्या समवायाङ्ग, नन्दी और दिग0 ग्रन्थों में भिन्न-भिन्न है। ज्ञाताधर्मकथा की तरह इसमें उपोद्धात भी है। इन सब कारणों से यह परवर्ती रचना सिद्ध होती है / 10-प्रश्नव्याकरण (क) श्वेताम्बर ग्रन्थों में1. स्थानाङ्ग में9 - इसमें 10 अध्ययन हैं-उपमा, संख्या, ऋषिभाषित, आचार्यभाषित, महावीरभाषित, क्षौमिकप्रश्न, कोमलप्रश्न, आदर्शप्रश्न, अङ्गुष्ठप्रश्न और बाहुप्रश्न। 2. समवायाङ्ग में - इसमें 108 प्रश्न, 108 अप्रश्न, 108 प्रश्नाप्रश्न, विद्यातिशय तथा नाग-सुपर्णो के साथ दिव्यसंवाद हैं। स्वसमय-परसमय के प्रज्ञापक प्रत्येक बुद्धों के विविध अर्थों वाली भाषाओं के द्वारा कथित वचनों का, आचार्यभाषितों का, वीरमहर्षियों के सुभाषितों का, आदर्श (दर्पण), अङ्गुष्ठ, बाहु, असि, मणि, क्षौम (वस्त्र) और आदित्य (सूर्य)भाषितों का, अबुधजनों को प्रबोधित करने वाले प्रत्यक्ष प्रतोतिकारक प्रश्नों के विविध गुण और महान अर्थवाले जिनवरप्रणीत उत्तरों का इसमें वर्णन है। अङ्गों के क्रम में यह 10वाँ अङ्ग है। इसमें 1 श्रुतस्कन्ध, 45 उद्देशनकाल, 45 समुदेशनकाल और संख्यात लाख पद हैं। शेष वाचनादि का कथन आचाराङ्गवत् है। 3. नन्दीसूत्र में - इसमें 108 प्रश्न, 108 अप्रश्न, 108 प्रश्नाप्रश्न हैं। जैसे-अङ्गुष्ठप्रश्न, बाहुप्रश्न, आदर्श प्रश्न, अन्य विचित्र विद्यातिशय तथा नाग-सुपर्णो के साथ दिव्य संवाद। श्रुतस्कन्ध-संख्या आदि का कथन समवायाङ्गवत् ही बतलाया है परन्तु यहाँ 45 अध्ययन और संख्यात् सहस्रपदसंख्या बतलाई है। 4. विधिमार्गप्रपा में2 - इसमें 1 श्रुतस्कन्ध है। इसके 10 अध्यायों के क्रमश: नाम सादार, मृषावादद्वार, स्तेनितद्वार, मैथुनद्वार, परिग्रहद्वार, अहिंसाद्वार, सत्यद्वार, अस्तेनितद्वार ब्रह्मचर्यद्वार और अपरिग्रहद्वार / यहाँ कोई 5-5 अध्ययनों के दो श्रुतस्कन्ध भी बतलाते हैं। (ख) दिगम्बर ग्रन्थों में1. तत्त्वार्थवार्तिक में3 - 'प्रश्नानां व्याकरणं प्रश्नव्याकरणम्'। इसमें युक्ति और नयों के द्वारा अनेक आक्षेप और विक्षेपरूप प्रश्नों के उत्तर हैं जिनमें सभी लौकिक और वैदिक अर्थों का निर्णय किया गया है। 319