________________ 2. धवला में4 - इसमें 9316000 पद हैं जिनमें आक्षेपिणी (तत्त्वनिरूपिका) विक्षेपणी, (स्वसमयस्थापिका), संवेदनी (धर्मफलनिरूपिका) और निवेदनी (वैराग्यजनिका) इन चार प्रकार की कथाओं का वर्णन है। आक्षेपिणी आदि कथाओं का स्वरूप तथा कौन किस प्रकार की कथा का अधिकारी है ? इसका भी यहाँ उल्लेख किया गया है। अन्त में प्रश्न के अनुसार हत, नष्ट, मुष्टि, चिन्ता, लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, जीवित, मरण, जय, पराजय, नाम, द्रव्य, आयु और संख्या का भी प्ररूपण है। 3. जयधवला में5 - पदसंख्या को छोड़कर शेष कथन प्रायः धवलावत् है / 4. अङ्गप्रज्ञप्ति में - इसका विवेचन धवलावत् है। (ग) वर्तमान रूप इसमें पाँच आस्रवद्वार और पाँच संवरद्वाररूप 10 अध्ययन हैं जिनमें क्रमश: हिंसा, झूठ, अदत्तादान, अब्रह्मचर्य, परिग्रह, अहिंसा, सत्य, अदत्ताग्रहण, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का वर्णन है। उपोद्धात ज्ञाताधर्मकथा की ही तरह है / इसमें प्रश्नों के व्याकरण ( उत्तर ) नहीं हैं। (घ) तुलनात्मक विवरण उपलब्ध आगम सर्वथा नवीन रचना है क्योंकि इसमें न तो ग्रन्थ के नामानुसार प्रश्नोत्तर शैली है और न उपलब्ध प्राचीन उल्लेखों से कोई साम्य है। वर्तमान रचना केवल विधिमार्गप्रपा के वक्तव्य से मेल रखती है। विधिमार्गप्रपा बहुत बाद की रचना है जो उपलब्ध आगम को दृष्टि में रखकर लिखी गई है अन्यथा यहाँ नन्दी को आधार होना चाहिए था। स्थानाङ्ग में जिन 10 अध्ययनों का उल्लेख है उनसे वर्तमान 10 अध्ययनों को दूर तक कोई साम्य नहीं है। नन्दी और समवायाङ्ग में जिन विद्यातिशयों का उल्लेख है वे भी नहीं हैं। इस सन्दर्भ में वृत्तिकार अभयदेव का यह कथन कि 'अनधिकारी चमत्कारी-विद्यातिशयों का प्रयोग न करें अतः उन्हें हटा दिया गया है', समुचित नहीं है क्योंकि कुछ तो अवशेष अवश्य मिलते। उपोद्धात भी इसे नूतन रचना सिद्ध करता है। स्थानाङ्ग में 10 अध्ययन गिनाए हैं और नन्दी में 45 अध्ययन। समवायाङ्ग में अध्ययनों का उल्लेख तो नहीं है परन्तु उसके 45 उद्देशन और समुद्देशन काल बतलाए हैं जिससे इसके 45 अध्ययनों की कल्पना को जा सकती है। समवायाङ्ग के 54292वें समवाय में कहा है कि भगवान् महावीर ने एक दिन में एक आसन से बैठे हुए 54 प्रश्नों के उत्तर रूप व्याख्यान दिए। यहाँ कथित 54 संख्या चिन्त्य है। समवायाङ्ग, नन्दी और दिगम्बर ग्रन्थों में पद-संख्या भिन्न-भिन्न है। दिग0 ग्रन्थों के उल्लेखों से ज्ञात होता है कि इसमें आक्षेप-विक्षेप के जनक प्रश्नों के उत्तर थे तथा लौकिक एवं वैदिक शब्दों का नयानुसार शब्दार्थ-निर्णय था। स्थानाङ्ग में कथित क्षौमिक प्रश्न आदि से भी इसकी पुष्टि होती है। सम्भवत: इसके ऋषिभाषित, आचार्यभाषित और महावीरभाषित अंश स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में प्रसिद्ध हैं। 11-विपाकसूत्र (क) श्वेताम्बर ग्रन्थों में - 1. स्थानाङ्ग में7 - कर्मविपाक के 10 अध्ययन हैं-मृगापुत्र, गोत्रास, अण्ड, शकट, ब्राह्मण, नन्दिषेण, शौरिक, उदुम्बर, सहस्रोद्दाह, आमरक और कुमारलिच्छवी / 2. समवायाङ्ग में8 - दुष्कृत और सुकृत कर्मों के फलों का वर्णन होने से यह दो प्रकार का है-दुःखविपाक और सुखविपाक। प्रत्येक के 10-10 अध्ययन हैं। दुःखविपाक में दुष्कृतों के नगरादि का वर्णन है तथा सुखविपाक में सुकृतों के नगरादि का वर्णन है। प्राणातिपात, असत्यवचन आदि पाप कर्मों से नरकादि गतिप्राप्तिरूप दुःखविपाक होता है। शील, संयम आदि शुभ भावों से देवादिगति-प्राप्ति (परम्परया मोक्ष-प्राप्ति) रूप सुखविपाक होता है। ये दोनों विपाक संवेग में कारण हैं। अङ्गों के क्रम में यह ग्यारहवाँ अङ्ग है। इसमें 20 अध्ययन, 20 उद्देशनकाल, 20 समुद्देशनकाल और संख्यात लाख पद हैं। शेष वाचनादि का कथन आचाराङ्गवत् है। 3. नन्दीसूत्र में - प्राय: समवायाङ्गवत् कथन है। इसमें दो श्रुतस्कन्ध तथा संख्यात-सहस्र पद कहे हैं। 4. विधिमार्गप्रपा में100 - इसमें दो श्रुतस्कन्ध हैं। प्रथम दुःखविपाक श्रुतस्कन्ध में 10 अध्ययन हैं-मृगापुत्र, उज्झितक, अभग्नसेन, शकट, बृहस्पतिदत्त, नन्दिवर्धन, उम्बरिदत्त, शौरिकदत्त, देवदत्ता और अन्जु। द्वितीय सुखविपाक श्रुतस्कन्ध के 10 अध्ययन हैं-सुबाहु, भद्रनन्दि, सुजात, सुवासव, जिनदास, धनपति, महाबल, भद्रनन्दि, महाचन्द्र और वरदत्त / (ख) दिगम्बर ग्रन्थों में - 320