________________ विषयवस्तु से भी पर्याप्त अन्तर है। पदसंख्या आदि में सर्वत्र साम्य नहीं है। दृष्टिवाद की विषयवस्तु बतलाते समय जयधवला में स्पष्ट लिखा है कि 'सूत्र' के 88 भेद ज्ञात नहीं हैं क्योंकि इनका विशिष्ट उपदेश नहीं पाया जाता है।23 धवला में मात्र 4 भेदों का कथन किया गया है। 24 इससे ज्ञात होता है कि उनके पास शेष अङ्गज्ञान की परम्परा कुछ न कुछ अवश्य रही है अन्यथा वे 'सूत्र के 88 भेदों के विशिष्ट उपदेश नहीं पाये जाते' ऐसा नहीं लिखते। समवायाङ्ग और नन्दी में इसके जो 88 भेद गिनाए हैं वे भिन्न प्रकार के हैं। ग्यारह अङ्ग ग्रन्थों का दृष्टिवाद से पृथक् उल्लेख दोनों परम्पराओं में प्राप्त होता है। दोनों ने दृष्टिवाद में स्वसमय और परसमय-सम्बन्धी समस्त विषय-प्ररूपणा मानी है। ग्यारह अङ्गों को दिगम्बरों ने स्वसमय-प्ररूपक कहा है।125 केवल सूत्रकृताङ्ग को परसमय का भी प्ररूपक बतलाया है। श्वेताम्बरों ने सूत्रकृताङ्ग, स्थानाङ्ग, समवायाङ्ग और व्याख्याप्रज्ञप्ति को भी समान रूप से स्वसमय और परसमय का प्ररूपक स्वीकार किया है। जयधवला में उक्त ज्ञाताधर्म की 19 कथायें सम्भवतः उसके 19 अध्ययनों की बोधक हैं जो बहुत महत्त्वपूर्ण कथन है। इसी प्रकार प्रतिक्रमण ग्रन्थत्रयी में सूत्रकृताङ्ग के 23 अध्ययनों के नाम आए हुए हैं जो समवायाङ्गोक्त अध्ययनों से पर्याप्त साम्य रखते हैं। उपलब्ध 6 से 11 तक के अङ्गों में कथा की प्रधानता है। व्याख्याप्रज्ञप्ति में गौतम, अग्निभूति और वायुभूति के नाम आना और सुधर्मा का नाम न होना चिन्त्य है। इसी प्रकार प्रश्नव्याकरण में जम्बू स्वामी का नाम तो है परन्तु सुधर्मा का नाम नहीं है। प्रश्नव्याकरण की मङ्गलयुक्त नवीन शैली है तथा 6 से 11 तक के अङ्गों की उत्थानिका एक जैसी अन्यपुरुष-प्रधान है। इससे इनकी रचना परवर्ती काल में हुई है यह निर्विवाद सत्य है / यह सम्भव है कि इनमें कुछ प्राचीन रूप सुरक्षित हों। स्थानाङ्ग और समवायाङ्ग की जो विषयवस्तु दिग0 धवला आदि में मिलती है और जो वर्तमान ग्रन्थों में उपलब्ध है उसमें बहुत अन्तर है। सम्भव है ये भी परवर्ती रचनाएँ हों। इनमें ऐसे भी बहुत से लौकिक विषय आदि आ गये हैं जिनका इनमें समावेश करना अपेक्षित नहीं था। वर्तमान प्रश्नव्याकरण प्रश्नों के उत्तर के रूप में नहीं है। विधिमार्गप्रपा जो बहुत बाद की रचना है उसमें स्थानाङ्ग के 10 स्थानों का तो उल्लेख है परन्तु समवायाङ्ग के 100 समवायों और श्रुतावतार की चर्चा तक नहीं है। नन्दी आदि अङ्ग बाह्य-ग्रन्थों का उल्लेख होने से भी समवायाङ्ग बहुत बाद की रचना सिद्ध होती है। अन्तकृद्दशा में जो वर्णन मिलता है वह स्थानाङ्ग आदि के कथन से मेल नहीं रखता है। यही स्थिति ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा आदि की है। इन सभी कारणों से ज्ञात होता है कि उपलब्ध आचाराङ्ग और सूत्रकृताङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध अधिक प्राचीन हैं। शेष में परवर्ती आचार्यों के कथनों का अधिक समावेश है। इतना होने पर भी उपलब्ध आगम हमारे लिए बहुत उपयोगी हैं। दिगम्बरों ने इनको सुरक्षित करने का प्रयत्न न करके बहुत बड़ी भूल की है। सभी ग्रन्थों का पृथक्-पृथक् समालोचन करके इनकी समयसीमा तथा विषय-वस्तु की मूलरूपता का विस्तार से निर्धारण अपेक्षित है। जो उभय परम्परा को मान्य हो। सन्दर्भ सूची - 1. भगवान् महावीर के 11 गणधर थे जिन्होंने उनके अर्थरूप उपदेशों को 12 अङ्ग ग्रन्थों के रूप में ग्रथित किया था। 2. आचार्य धरसेन (ई0 1-2 शताब्दी, वीर नि0 7वीं शताब्दी) के शिष्य पुष्पदन्त और भूतबलि ने षट्खण्डागम की रचना की / षट्खण्डागम के प्रारम्भ के 177 सूत्र आचार्य पुष्पदन्त ने और शेष आचार्य भूतबलि ने लिखे। इस ग्रन्थ का आधार द्वितीय अग्रायणी पूर्व के चयनलब्धि नामक अधिकार का चतुर्थ पाहुड कर्मप्रकृति' है। कषायपाहुड की रचना धरसेनाचार्य के समकालीन गुणधराचार्य ने ज्ञानप्रवाद नामक 5वें पूर्व की 10वें वस्तु के तीसरे 'पेज्जदोसपाहुड' के आधार पर की। इन दोनों पर क्रमशः 'घवला' और 'जयधवला' नामक टीकाएँ वीरसेनाचार्य ने लिखी हैं / चार विभक्तियों के बाद 'जयधवला' टीका की पूर्णता वीरसेन के शिष्य जिनसेन ने (शक सं0 759) की है। 3. विवाहपन्नतीए णं भगवतीए चउरासीइं पयसहस्सा पदग्गेणं पण्णत्ता / समवायाङ्ग 84-395 4. स्थानाङ्ग 10-110; समवायाङ्गसूत्र 511, 57, 300; नन्दी पृ0 287-288; तत्त्वार्थाधिगमभाष्य 1.20; तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.20, पृ0 72; धवला 1.1.2, पृ0 100; जयधवला गाथा 1, पृ0 72, गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा 356 5. स्थानाङ्ग 9.2 6. स्थानाङ्ग 10.110, 115 समवायाङ्गसूत्र 512-514 8. तिण्हं गणिपिडगाणं आयारचूलियावज्जाणं सत्तावन्नं अज्झयणा पण्णत्ता / तं जहा आयारे सूयगडे ठाणे / समवायाङ्ग, समवाय 57 सूत्र 300 9. समवायाङ्ग 9.53 326