________________ 1. तत्त्वार्थवार्तिक में101- इसमें पुण्य और पाप कर्मों के फल ( विपाक ) का विचार किया गया है। 2. धवला में102 - इसमें 18400000 पद हैं जिनमें पुण्य और पाप कर्मों के विपाक (फल) का वर्णन है। 4. अङ्गप्रज्ञप्ति में104 - धवला-जयधवलावत् कथन है / (ग) वर्तमानरूप इसमें ज्ञाताधर्मकथावत् उपोद्धात है / विपाक का अर्थ है 'कर्मफल' / यहाँ इन्द्रभूति गौतम संसार के प्राणियों को दुःखी देखकर भगवान महावीर से उसका कारण पूछते हैं। भगवान महावीर पापरूप और पुण्यरूप कर्मों के फलों का कथन करके धर्मोपदेश देते हैं। इसमें दो श्रुतस्कन्ध हैं (1) दुःखविपाक- इसमें 10 अध्ययन हैं जिनमें क्रमश: मुगापुत्र, उज्झितक (कामध्वजा), अभग्नसेन (चोर), शकट, बृहस्पतिदत्त (पुरोहितपुत्र), नन्दिवर्धन, उम्बरदत्त (वैद्य), शोरिक (सोरियदत्त मछलीमार), देवदत्ता और अन्जु की कथाएँ हैं। इनमें पाप कर्मों के परिणामों का कथन है। (2) सुखविपाक-इसमें 10 अध्ययन हैं जिनमें क्रमशः सुबाहुकुमार, भद्रनन्दी, सुजातकुमार, सुवासवकुमार, जिनदास, धनपति, महाबल, भद्रनन्दी, महाचन्द्र और वरदत्तकुमार की कथाएँ हैं। इनमें पुण्यकर्मों के परिणामों का कथन है। यहाँ इतना विशेष है कि दुःखविपाक में असत्यभाषी और महापरिग्रही की तथा सुखविपाक में सत्यभाषी और अल्पपरिग्रही की कथायें नहीं हैं जो चिन्त्य हैं। (घ) तुलनात्मक विवरण - दिग0 और श्वे दोनों के उल्लेखों से इतना तो निश्चित है कि इसमें कर्मों के दुःखविपाक और सुखविपाक का विवेचन रहा है। यद्यपि इसमें कर्मों के दु:खविपाक और सुखविपाक का ही विवेचन है परन्तु इसकी मूलरूपता चिन्त्य है। समवायाङ्ग, नन्दी और विधिमार्गप्रपा के अनुसार अध्ययनों की तो सङ्गति बैठ जाती है परन्तु समवायाङ्ग में इसके दो श्रुतस्कन्धों का उल्लेख नहीं है। स्थानाङ्ग में 10 अध्ययन ही बतलाए हैं। यद्यपि वहाँ केवल कर्मविपाक शब्द का प्रयोग है, परन्तु वह सम्भवतः सम्पूर्ण विपाकसूत्र का प्रतिनिधि है अन्यथा दुःखविपाक और सुखविपाक के 10-10 अध्ययन पृथक-पृथक् गिनाए जाते / वर्तमान दुःखविपाक के अध्ययनों के साथ स्थानाङ्कोक्त 10 अध्ययनों का पूर्ण साम्य नहीं है। समवायाङ्ग के 55वें समवाय में कहा है-“भगवान् महावीर अन्तिम रात्रि में पुण्यफल-विपाक वाले 55 और पापफल विपाकवाले 55 अध्ययनों का प्रतिपादन करके सिद्ध, बुद्ध मुक्त हो गए।" इस कथन से प्रकृत ग्रन्थ-योजना सङ्गत नहीं बैठती हैं। उपोद्धात भी इसकी परवर्तिता का सूचक है। 12 - दृष्टिवाद (क) श्वेताम्बर ग्रन्थों में - 1. स्थानाङ्ग में - इसके 4 भेद गिनाए हैं परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत और अनुयोग।105 दृष्टिवाद के 10 नामों का भी उल्लेख हैदृष्टिवाद, हेतुवाद, भूतवाद, तत्त्ववाद (तत्त्ववाद या तथ्यवाद), सम्यग्वाद, धर्मवाद, भाषाविचय (भाषाविजय), पूर्वगत, अनुयोगगत और सर्वप्राणभूतजीवसत्त्वसुखावह / 105 इसके अतिरिक्त उत्पादपूर्व की 10 वस्तु और आस्तिनास्तिप्रवाद पूर्व की 10 चूलावस्तु का उल्लेख है परन्तु नाम नहीं गिनाए हैं। द्रव्यानुयोग के 10 प्रकार गिनाए हैं-द्रव्यानुयोग, मातृकानुयोग, एकार्थिकानुयोग, करणानुयोग, अर्पितानर्पितानुयोग, भाविताभावितानुयोग, बाह्याबाह्यानुयोग, शाश्वताशाश्वतानुयोग, तथाज्ञानानुयोग और अतथाज्ञानानुयोग 107 अरिष्टनेमी के समय के चतुर्दशपूर्ववेत्ता मुनियों की संख्या 400 बतलाई है।108 2. समवायाङ्ग में109 - दृष्टिवाद में सब भावों की प्ररूपणा की जाती है। संक्षेप से वह 5 प्रकार का है-परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत, अनुयोग और चूलिका।। (अ) परिकर्म 7 प्रकार का है-सिद्धश्रेणिका, मनुष्यश्रेणिका, पृष्टश्रेणिका, अवगाहनश्रेणिका, उपसम्पद्यश्रेणिका, विप्रजहत्श्रेणिका और च्युताच्युतश्रेणिका। (1) सिद्धश्रेणिका के 14 भेद हैं मातृकापद 19, एकार्थकपद, अर्थपद, पाठपद, आकाशपद, केतुभूत, राशिबद्ध, एकगुण, द्विगुण, त्रिगुण, केतुभूत प्रतिग्रह, संसारप्रतिग्रह, नन्द्यावर्त और सिद्धबद्धा। (2) मनुष्यश्रेणिका परिकर्म के 14 भेद हैं-मातृकापद से लेकर पूर्वोक्त नन्द्यावर्त तक तथा मनुष्यबद्ध। (3-7) पृष्टश्रेणिका परिकर्म से लेकर शेष सभी परिकर्मों के 11-11 भेद हैं। मूल में इनके भेद नहीं गिनाए हैं, परन्तु नन्दी में भेदों को गिनाया गया है। सम्भवतः समवायाङ्ग के अनुसार इनके भेद मनुष्यश्रेणिका परिकर्मवत् बनेंगे, अन्तिम भेद केवल बदलता जायेगा। पूर्वोक्त सातों परिकम स्वसामयिक (जैनमतानुसारी) हैं, सात आजीविका मतानुसारी हैं, छ: परिकर्म चतुष्कनय 321