________________ 7-उपासकदशा (क) श्वेताम्बर ग्रन्थों में1. स्थानाङ्ग में - इसके 10 अध्ययन हैं-आनन्द, कामदेव, चूलनीपिता, सुरादेव, चुल्लशतक, कुण्डकोलिक, सद्दालपुत्र, महाशतक, नन्दिनीपिता और लेयिकापिता। 2. समवायाङ्ग में - इसमें उपासकों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखण्ड, राजा, माता-पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथायें, इहलौकिक-पारलौकिक ऋद्धिविशेष, शीलव्रत-विरमण-गुण-प्रत्याख्यान-प्रोषधोपवास प्रतिपत्ति, सुपरिग्रह (श्रुतपरिग्रह), तपोपधान, प्रतिमा, उपसर्ग, सल्लेखना, भक्तप्रत्याख्यान, पादपोपगमन, देवलोकगमन, सुकुलप्रत्यागमन, पुनः बोधिलाभ और अन्तक्रिया का कथन किया गया है। उपासकदशा में उपासकों (श्रावकों) के ऋद्धिविशेष, परिषद, विस्तृत धर्मश्रवण, बोधिलाभ आदि के क्रम से अक्षय सर्व-दुःखमुक्ति का वर्णन हैं। अङ्गों के क्रम में सातवां अङ्ग है-1 श्रुतस्कन्ध, 10 अध्ययन, 10 उद्देशनकाल, 10 समुद्देशनकाल और संख्यात लाख पद हैं। शेष वाचनादि का कथन आचाराङ्गवत् है। 2. नन्दीसूत्र में7 - इसमें प्रायः समवायाङ्गवत् वर्णन है। क्रम में अन्तर है। उपासकों के ऋद्धिविशेष, परिषद् आदि वाला अंश यहां नहीं है। पद-संख्या संख्यात सहस्र बतलाई है। 3. विधिमार्गप्रपा में - इसमें एक श्रुतस्कन्ध तथा 10 अध्ययन हैं। अध्ययनों के नाम हैं-1. आनन्द, 2. कामदेव, 3. चूलनीपिता, 4. सुरादेव, 5. चुल्लशतक, 6. कुण्डकोलिक, 7. सद्दलपुत्र, 8. महाशतक, 9. नन्दिनीपिता और 10. लेतिआपिता। (ख) दिगम्बर ग्रन्थों में1. तत्त्वार्थवार्तिक में - श्रावकधर्म का कथन है। 2. धवला में - उपासकाध्ययन में 1170000 पद हैं जिनमें दार्शनिक, व्रतिक, सामायिकी, प्रीषधोपवासी, सचित्तविरत, रात्रिभुक्तिविरत, ब्रह्मचारी, आरम्भविरत, परिग्रहविरत, अनुमतिविरत और उद्दिष्टविरत इन 11 प्रकार के उपासकों के (श्रावकों के) लक्षण, उनके व्रतधारण करने की विधि तथा आचरण का वर्णन है। 3. जयधवला में - दार्शनिक आदि 11 प्रकार के उपासकों के ग्यारह प्रकार के धर्म का वर्णन उपासकाध्ययन में है। 4. अङ्गप्रज्ञप्ति में2 - उपासकाध्ययन में 117000 पद हैं जिनमें दार्शनिक आदि 11 प्रकार के देशविरतों (श्रावकों) के श्रद्धा, दान, पूजा, सङ्घसेवा, व्रत, शीलादि का कथन है। (ग) वर्तमान रूप इसमें उपासकों के आचारादि का वर्णन है। उपोद्धात ज्ञाताधर्मकथावत् है। आनन्द आदि जिन 10 उपासकों के नाम स्थानाङ्ग और विधिमार्गप्रपा में हैं उनकी ही कथायें इसमें हैं। सभी कथायें एक जैसी हैं उनमें केवल नामादि का अन्तर है। (घ) तुलनात्मक विवरण यह एकमात्र ऐसा अङ्गग्रन्थ है जिसमें उपासकों के आचार आदि का वर्णन किया गया। है, ऐसा दिग0 और श्वे० दोनों के उल्लेखों से प्रमाणित होता है। 'दशा' शब्द 10 संख्या का बोधक है। इस तरह यह अङ्ग-ग्रन्थ स्वनामानुरूप है। धवला और जयधवला में उपासकों की 11 प्रतिमाओं का भी उल्लेख है परन्तु तत्त्वार्थवार्तिक में ऐसा उल्लेख नहीं है। समवायाङ्ग और नन्दी में 'प्रतिमा' शब्द तो मिलता है परन्तु प्रतिमा के दार्शनिक आदि नाम नहीं हैं। शीलव्रत आदि शब्दों का भी प्रयोग समवायाङ्ग और नन्दी में मिलता है। समवायाङ्ग और नन्दी में आनन्द आदि 10 उपासकों के नामों का उल्लेख तो नहीं है परन्तु 10 अध्ययन संख्या से 10 उपासकों की पुष्टि होती है। दिग0 इस विषय में चुप हैं। वर्तमान आगम में स्थानाङ्गोक्त आनन्द आदि 10 उपासकों की ही कथायें हैं। पदसंख्या से सम्बन्धित तीन प्रकार के उल्लेख हैं-(1) समवायाङ्ग में संख्यात लाख, (2) नन्दी में संख्यात सहस्र और (3) धवला में 11 लाख 70 हजार। उपोद्धातादि से यह अपेक्षाकृत परवर्ती रचना सिद्ध होती है। श्रावकधर्म का प्रतिपादक यह प्राचीनतम ग्रन्थ रहा है ऐसा उभय परम्परानुमत है। 8-अन्तकृद्दशा (क) श्वेताम्बर ग्रन्थों में1. स्थानाङ्ग में3 - इसमें 10 अध्ययन हैं-नमि, मातङ्ग, सोमिल, रामगुप्त, सुदर्शन, जमाली, भगाली, किङ्कष चिल्वक 316