________________ ने विस्तार से उत्तर दिये हैं। द्रव्य, गुण, पर्याय, क्षेत्र, काल, प्रदेश, परिणाम, यथास्थितिभाव, अनुगम, निक्षेप, नय, प्रमाण और सुनिपुण उपक्रमों के विविध प्रकारों के द्वारा प्रकट रूप से प्रकाशक, लोकालोक का प्रकाशक, संसार-समुद्र से पार उतारने में समर्थ, सुरपति से पूजित, भव्य जनों के हृदय को आनन्दित करने वाले, तम:रज-विध्वंशक, सुदृष्टदीपकरूप, ईहामति-बुद्धिवर्द्धक, पूरे (अन्यून) 36 हजार व्याकरणों (प्रश्नों के उत्तर) को दिखाने से व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्रार्थ के अनेक प्रकारों का प्रकाशक, शिष्यों का हितकारक और गुणों से महान् अर्थ वाला है। स्वसमयादि का कथन पूर्ववत् है। अङ्गों के क्रम में यह 5वां अङ्गग्रन्थ है। इसमें 1 श्रुतस्कन्ध, 100 से कुछ अधिक अध्ययन, 10 हजार उद्देशक, 10 हजार समुद्देशक, 36 हजार प्रश्नों के उत्तर तथा 84 हजार पद हैं। वाचनादि का कथन आचाराङ्गवत् है। यहाँ व्याख्याप्रज्ञप्ति के लिए 'विवाहपन्नत्ती' और 'वियाहपन्नत्ती' दोनों पदों का प्रयोग हुआ है। इसके लिए 'भगवती' पद का भी प्रयोग किया गया है तथा यहाँ भी इसके 84 हजार पद बतलाये गये हैं। 2. नन्दीसूत्र में48 - व्याख्याप्रज्ञप्ति में जीवादि का कथन है (पूर्ववत्) / समवायाङ्गोक्त 'नानाविध देवादि०' यह अंश यहाँ नहीं है। यहाँ केवल "विवाहपन्नत्ती" शब्द का प्रयोग हुआ है। पद परिमाण दो लाख 88 हजार बतलाया है। शेष कथन समवायाङ्गवत् है। 3. विधिमार्गप्रपा में' - व्याख्याप्रज्ञप्ति के लिए 'भगवती' और 'विवाहपन्नत्ती' दोनों शब्दों का प्रयोग एक साथ किया गया है। इसमें श्रुतस्कन्ध नहीं हैं। 'शतक' नामवाले 41 अध्ययन हैं जो अवान्तर शतकों के साथ कुल 138 शतक हैं। इसके 1923 1932 उद्देशक बतलाये हैं। (ख) दिगम्बर ग्रन्थों में 1. तत्त्वार्थवातिक में 51_“जीव है या नहीं है" इत्यादि रूप से 60 हजार प्रश्नों के उत्तर व्याख्याप्रज्ञप्ति में हैं। 2.धवला में52- इसमें 2 लाख 28 हजार पदों के द्वारा क्या जीव है ? क्या जीव नहीं है ? इत्यादि रूप से 60 हजार प्रश्नों के व्याख्यान हैं। 3. जयधवला में3 - इसमें 60 हजार प्रश्नों तथा 96 हजार छिन्नच्छेदों से जनित शुभाशुभों का वर्णन है। 4. अङ्गप्रज्ञप्ति में4 - इसे मूल गाथा में 'विवायपण्णत्ति' कहा है तथा इसकी संस्कृत छाया में 'विपाकप्रज्ञप्ति' कहा है। इसमें जीव हैं, नहीं है, नित्य है, अनित्य है आदि 60 हजार गणि प्रश्न हैं। पदसंख्या 228000 है। (ग) वर्तमान रूप इसमें गौतम गणधर प्रश्नकर्ता हैं तथा भगवान महावीर उत्तर प्रदाता हैं। इस शैली का स्पष्ट उल्लेख तत्त्वार्थवार्तिक में मिलता है-"एवं हि व्याख्याप्रज्ञप्तिदण्डकेषु उक्तम्......" इति गौतमप्रश्ने भगवता उक्तम्'। इस ग्रन्थ का प्रारम्भ मङ्गलाचरण पूर्वक होता है। ऐसा किसी अन्य अङ्ग ग्रन्थ में नहीं हैं। प्रारम्भ के 20 शतक प्राचीन हैं। वेबर के अनुसार बाद के 21 शतक पीछे से जोड़े गए हैं। रायपसेणीय, पन्नवणा आदि अङ्ग बाह्य ग्रन्थों के भी उल्लेख इसमें मिलते हैं। भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्यों की भी चर्चा है। जयन्ति श्राविका का भी कथन है। इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति गणधरों के तो नाम हैं परन्तु सुधर्मा गणधर का नाम नहीं है। पौधे, लेश्या, कर्मबन्ध, समवसरण, त्रेता, द्वापर, कलियुग, ब्राह्मी-लिपि आदि का वर्णन है। व्याख्यात्मक कथन होने से इसे व्याख्याप्रज्ञप्ति कहते हैं तथा पूज्य और विशाल होने से इसे 'भगवती' भी कहते (घ) तुलनात्मक विवरण इसके पद-प्रमाण के सम्बन्ध में दिगम्बर ग्रन्थों में तो एकरूपता है, परन्तु श्वेताम्बरों के समवायाङ्ग और नन्दीसूत्र में एकरूपता नहीं है। इस तरह पदप्रमाण के सम्बन्ध में 3 मत हैं(1) दिगम्बर ग्रन्थों का, (2) समवायाङ्ग का और (3) नन्दीसूत्र का / नन्दी में आचाराङ्ग से व्याख्याप्रज्ञप्ति तक स्पष्ट रूप से क्रमश: दुगुना-दुगुना पद-प्रमाण बतलाया गया है, परन्तु समवायाङ्ग में ऐसा नहीं किया गया है। समवायाङ्ग में दो स्थानों पर पदसंख्या उल्लिखित हुई है। और दोनों स्थानों पर 84 हजार पद बतलाए हैं। प्रश्नों के उत्तरों की संख्या के सन्दर्भ में भी 3 मत मिलते हैं (1) श्वेताम्बर ग्रन्थों में 36 हजार, (2) तत्त्वार्थवार्तिक, धवला और अङ्गप्रज्ञप्ति में 60 हजार और (3) जयधवला में 60 हजार प्रश्नोत्तरों के साथ 96 हजार छिन्नच्छेद / वर्तमान व्याख्याप्रज्ञप्ति की दिगम्बर उल्लेखों से भिन्नता है। इसमें गौतम का प्रश्नकर्ता होना और सुधर्मा का नाम न होना चिन्त्य है। गौतम का प्रश्नकर्ता होना दिगम्बरों के अनुकूल है। इस ग्रन्थ का कुछ अंश निश्चय ही 313