________________ 2. नन्दीसूत्र में - समवायाङ्ग में जीवादि का (समवायाङ्गवत्) समाश्रय किया गया है। एकादि से वृद्धि करते हुए 100 स्थानों तक के भावों की प्ररूपणा है। द्वादश गणिपिटक का संक्षेप से परिचय है। शेष श्रुतस्कन्धादि तथा वाचनादि का कथन समवायाङ्गवत् है। 3. विधिमार्गप्रपा में' - इसमें श्रुतस्कन्ध, अध्ययन और उद्देशक का उल्लेख नहीं है। (ख) दिगम्बर ग्रन्थों में1. तत्त्वार्थवार्तिक में2 - समवायाङ्ग में सभी पदार्थों का समवाय (समानता से कथन) है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से वह समवाय 4 प्रकार का है, जैसे—(क) द्रव्य समवाय-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश तथा एक जीव के एक समान असंख्यात प्रदेश होने से इनका द्रव्यरूप से समवाय है (पर्यायार्थिक नय से प्रदेशों के द्रव्यत्व की भी सिद्धि होती है)। (ख) क्षेत्र समवाय-जम्बूद्वीप, सर्वार्थसिद्धि, अप्रतिष्ठान नरक तथा नन्दीश्वरद्वीप की एक बावड़ी ये सब 1 लाख योजन विस्तारवाले होने से इनका क्षेत्र की दृष्टि से समवाय है। (ग) काल समवायउत्सर्पिणी और अवसपणी ये दोनों 10 कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण होने से इनमें काल समवाय है। (घ) भाव समवायक्षायिक सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन, यथाख्यात चारित्र ये सब अनन्त विशुद्धिरूप होने से भाव समवाय वाले हैं। 2. धवला में3 - समवायाङ्ग में 1 लाख 64 हजार पदों के द्वारा सभी पदार्थों के समवाय का कथन है। समवाय 4 प्रकार का है-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। जैसे—(क) द्रव्य समवाय-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश और एक जीव के प्रदेश परस्पर समान हैं। (ख) क्षेत्र समवाय-सीमन्तक नरक (प्रथम इन्द्रक बिल), मानुष क्षेत्र, ऋजु विमान (सौधर्म इन्द्र का पहला इन्द्रक) और सिद्धलोक ये चारों क्षेत्र की अपेक्षा समान हैं। (ग) काल समवाय-एक समय दूसरे समय के समान है और एक मुहूर्त दूसरे मुहूर्त के समान है। (घ) भाव समवाय-केवलज्ञान और केवलदर्शन समान हैं क्योंकि ज्ञेयप्रमाण ज्ञान-मात्र में चेतना शक्ति की उपलब्धि होती है / 3. जयधवला में" - समवायाङ्ग में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावों के समवाय का वर्णन है। शेष कथन प्रायः धवला के समान है। 4. अङ्गप्रज्ञप्ति में 5-समवायाङ्ग में 1 लाख 64 हजार पद हैं। संग्रहनय से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावों की अपेक्षा पदार्थों के सादृश्य का कथन है। शेष कथन प्रायः धवला के समान है। (ग) वर्तमान रूप यह अङ्गग्रन्थ भी स्थानाङ्ग की शैली में लिखा गया कोश ग्रन्थ है। इसमें 1 से वृद्धि करते हुए 100 समवायों का वर्णन है। एक प्रकीर्ण समवाय है जिसमें 100 से आगे की संख्याओं का समवाय बतलाया गया है। इसके अन्त में 12 अङ्ग ग्रन्थों का परिचय दिया गया है जो नन्दीसूत्रोक्त श्रुतपरिचय से साम्य रखता है। जिससे इसके कुछ अंशों की परवर्तिता सिद्ध होती है। (घ) तुलनात्मक समीक्षा दिगम्बर और श्वेताम्बर ग्रन्थों में बतलाई गई इसकी पदसंख्या में कुछ अन्तर है। दिगम्बरों के सभी ग्रन्थों में इस ग्रन्थ का विषय एक जैसा बतलाया है। उदाहरण में यत्किञ्चित् अन्तर है। समवायाङ्ग और नन्दी में 100 समवायों तथा श्रुतावतार का उल्लेख है जो वर्तमान आगम में देखा जाता है। वर्तमान आगम में एक प्रकीर्ण समवाय भी है जिसमें 100 से अधिक के समवायों का कथन है। विधिमार्गप्रपा में अध्ययनादि के विभाजन का निषेध है। उसमें 100 समवाय और श्रुतावतार का भी उल्लेख नहीं है जो चिन्त्य है। दिगम्बर ग्रन्थों में भी 100 समवाय तथा श्रुतावतार का उल्लेख नहीं है। वहाँ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से 4 प्रकार के समवाय द्वारा सभी पदार्थों के विवेचन का निर्देश है। इस तरह उपलब्ध आगम की शैली दिगम्बर-ग्रन्थोक्त शैली से भिन्न है। उपलब्ध आगम की शैली उपलब्ध स्थानाङ्ग जैसी (संग्रह-प्रधान) ही है। वस्तुत: स्थानाङ्ग और समवायाङ्ग की शैली में अन्तर होना चाहिए था। दिगम्बर ग्रन्थोक्त स्थानाङ्ग और समवायाङ्ग की शैली में अन्तर है। दिगम्बर ग्रन्थोक्त स्थानाङ्ग और समवायाङ्ग की दो शैलियों से उपलब्ध स्थानाङ्ग और समवायाङ्ग की शैली भिन्न प्रकार की है। 5-व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) (क) श्वेताम्बर ग्रन्थों में1. समवायाङ्ग में - व्याख्याप्रज्ञप्ति में नानाविध देव, नरेन्द्र, राजर्षि तथा अनेक संशयग्रस्तों के प्रश्नों के भगवान् जिनेन्द्र 312