________________ अट्ठासवो णवट्ठो जीवो दसट्ठाणिओ भणिओ / / 3. जयधवला में7 - स्थानाङ्ग में जीव और पुद्गलादिक के एक से लेकर एकोत्तर क्रम (2,3,4 आदि) से स्थानों का वर्णन है। धवला में कथित 'एक्को चेव महप्पा' गाथा भी उद्धृत है। 4. अङ्गप्रज्ञप्ति में -स्थानाङ्ग में 42 हजार पद हैं। एकादि क्रम से स्थान भेद हैं, जैसे-संग्रह नय से जीव एक है। संसारी और मुक्त के भेद से (व्यवहार नय से) जीव दो हैं। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य के भेद से जीव तीन प्रकार का है। चार गतियों में संक्रमण करने से जीव चार प्रकार का है। पाँच भावों के भेद से जीव पाँच प्रकार का है। पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, ऊर्ध्व और अध:गमन करने के कारण छ: प्रकार का जीव है। स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, स्यादुभय, स्यादवक्तव्य स्याद् अस्त्यवक्तव्य, स्यान्नास्ति अवक्तव्य और स्यादुभय-अवक्तव्य के भेद से जीव सात प्रकार का है। आठ प्रकार के कर्मों से युक्त होने से जीव आठ प्रकार का है। नवर्थक (नवपदार्थक) होने से जीव नौ प्रकार का है। पृथिवी, जल, तेज, वायु, प्रत्येक, निगोद, द्वि, त्रि, चतुः तथा पाँच इन्द्रियों के भेद से 10 प्रकार का जीव है। इसी प्रकार पुद्गल नाम से अजीव एक है। अणु और स्कन्ध के भेद से अजीव पुद्गल दो प्रकार का है। इसी प्रकार अन्यत्र भी जानना चाहिए। (ग) वर्तमान रूप इसमें एक स्थानिक, द्विस्थानिक आदि 10 स्थान या अध्ययन हैं जिनमें एक से लेकर दस तक की संख्या के अर्थों का कथन है। इसमें लोकसम्मत गर्भधारण आदि विषयों का भी कथन है। इसमें आठ निह्नवों में से "बोटिक" को छोड़कर केवल सात निह्नवों का कथन है। इससे ज्ञात होता है कि इसके रचनाकाल तक जैनों में सम्प्रदायभेद नहीं हुआ था। इस तरह इसमें वस्तु का निरूपण संख्या की दृष्टि से किया गया है, जिससे यह संग्रह प्रधान कोश-शैली का ग्रन्थ हो गया है। (घ) तुलनात्मक विवरण दिगम्बर और श्वेताम्बर ग्रन्थोक्त पद संख्या में अन्तर है। इसके 10 अध्ययन हैं ऐसा स्पष्ट कथन समवायाङ्ग आदि श्वेताम्बर ग्रन्थों में तो है, परन्तु दिगम्बर ग्रन्थों में नहीं है। धवला में जीवादि के 1 से 10 संख्या तक के कथन का स्पष्ट उल्लेख होने से तथा जयधवला और अङ्गप्रज्ञप्ति में तदनुरूप ही उदाहरण मिलने से यह सम्भावना की जा सकती है कि इसमें 10 अध्ययन रहे होंगे, परन्तु उनका विभाजन संख्या के आधार पर रहा होगा या विषय के आधार पर यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता है। दिगम्बर-ग्रन्थोक्त शैली और उपलब्ध आगम की शैली में स्पष्ट अन्तर है। समवायाङ्ग के इस कथन से कि 'इसमें एकविध, द्विविध से लेकर दसविध तक जीव, पुद्गल तथा लोकस्थानों का वर्णन है' स्पष्ट ही दिगम्बर शैली का सङ्केत है। तत्त्वार्थवार्तिककार का यह कथन कि 'इसमें अनेक आश्रयवाले अर्थों का निर्णय है' पूर्ण स्पष्ट नहीं है। यह एक प्रकार का कोश ग्रन्थ है जिसकी शैली समवायाङ्ग से निश्चित ही भिन्न रही है। वर्तमान स्थानाङ्ग दिगम्बरोक्त स्थानाङ्ग-शैली से सर्वथा भिन्न है। आश्चर्य है कि स्थानाङ्ग में 10 संख्या के वर्णन प्रसङ्ग में स्थानाङ्ग के 10 अध्ययनों का उल्लेख नहीं है, जो होना चाहिए था। वर्तमान आगम में गर्भधारण आदि अनेक लौकिक बातों का समावेश कालान्तर में किया गया लगता है। 4-समवायाङ्ग (क) श्वेताम्बर ग्रन्थों में 1. समवायाङ्ग में9 - स्वसमयादि सूत्रकृताङ्गवत् सूचित किए जाते हैं। इसमें एक-एक वृद्धि करते हुए 100 तक के स्थानों का कथन है तथा जगत् के जीवों के हितकारक बारह प्रकार के श्रुतज्ञान का संक्षेप से समवतार है। नाना प्रकार के जीवाजोवों का विस्तार से कथन है। अन्य भी बहुत प्रकार के विशेष तत्त्वों का कथन है। नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और सुरगणों के आहार, उच्छास, लेश्या, आवास-संख्या, आयाम-प्रमाण, उपपात-च्यवन, अवगाहना, उपधि, वेदना, विधान (भेद), उपयोग, योग, इन्द्रिय, कषाय, नाना प्रकार की जीव-योनियाँ, पर्वत आदि के विष्कम्भ (चौड़ाई), उत्सेध (ऊँचाई), परिरय (परिधि) के प्रमाण, मन्दर आदि महीधरों के भेद, कुलकर, तीर्थङ्कर, गणधर, समस्त भरतक्षेत्र के स्वामी, चक्रवर्ती, चक्रधर (वासुदेव), हलधर (बलदेव) आदि का निर्वचन है। अङ्गों के क्रम में यह चौथा अङ्ग है। इसमें 1 श्रुतस्कन्ध, 1 अध्ययन, 1 उद्देशन, 1 समुद्देशन और 1 लाख 44 हजार पद हैं। वाचनादि का विवेचन आचाराङ्गवत् है / / 311