________________ का निरूपण किया है क्योंकि वहाँ जो गाथा उद्धृत है वह मूलाचार में उसी रूप में मिलती है। श्वे० आगम साहित्य में यह गाथा दशवकालिक में मिलती है, आचाराङ्ग में नहीं। दशवकालिक ग्रन्थ भी मुनि के आचार का ही प्रतिपादक ग्रन्थ है। 2-सूत्रकृताङ्ग (क) श्वेताम्बर ग्रन्थों में 1. समवायाङ्ग में-सूत्रकृताङ्ग में स्वसमय, परसमय, स्वसमय-परसमय, जीव, अजीव, जीवाजीव, लोक, अलोक और लोकालोक सूचित किए जाते हैं। जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष तक के सभी पदार्थ सूचित किए गए हैं। जो श्रमण अल्पकाल से ही प्रव्रजित हुए हैं और जिनकी बुद्धि खोटे समयों (परसिद्धान्तों) को सुनने से मोहित तथा मलिन है। उनको पापकारी मलिनबुद्धि के दुर्गणों के शोधन के लिए क्रियावादियों के 180, अक्रियावादियों के 84, अज्ञानवादियों के 67 और वैनयिकों के 32; इन सब 363 अन्यदृष्टि-समयों का व्यूहन करके स्वसमग्र की स्थापना की गई है। नाना दृष्टान्तयुक्त युक्ति-युक्त वचनों द्वारा परमतों की निस्सारता को बतलाया गया है। अनेक अनुयोगों द्वारा विविध प्रकार से विस्तारकर, परसद्भावगुणविशिष्ट, मोक्षपथ के अवतारक, उदार, अज्ञानान्धकाररूपी दुर्गों के लिए दीपकरूप, सिद्धि और सुगति के लिए सोपानरूप, विक्षोभ और निष्प्रकम्प सूत्रार्थ हैं / ___ अङ्गों के क्रम में यह दूसरा अङ्ग है। इसमें 2 श्रुतस्कन्ध, 23 अध्ययन, 33 उद्देशनकाल, 33 समुद्देशनकाल और 36 हजार पद हैं। वाचनादि का विवेचन आचाराङ्गवत् है। समवायाङ्ग में सूत्रकृताङ्ग के 23 अध्ययन भी गिनाये गये हैं-1-1-समय, 2-वैतालिक, 3-उपसर्गपरिज्ञा, 4-स्त्रीपरिज्ञा, 5-नरकविभक्ति, 6-महावीरस्तुति, 7-कुशीलपरिभाषित, 8-वीर्य, 9-धर्म, 10-समाधि, 11-मार्ग, 12-समवसरण, 13-आख्यातहित (याथातथ्य), 14-ग्रन्थ, 15-यमतीत, 16-गाथा, 17-पुण्डरीक, 18-क्रियास्थान, 19-आहारपरिज्ञा, 20-अप्रत्याख्यान क्रिया, 21-अनगारश्रुत, 22-आर्द्राय और 23-नालन्दीय / / 2. नन्दीसूत्र में2-सूत्रकृताङ्ग में लोक, अलोक, लोकालोक, जीव, अजीव, जीवाजीव, स्वसमय, परसमय और स्वसमय-परसमय की सूचना की जाती है। इसमें 180 क्रियावादियों, 84 अक्रियावादियों, 67 अज्ञानवादियों और 32 वैनयिकों के, कुल 363 परमतों का व्यूहन करके स्वसमय की स्थापना की गई हैं। यह दूसरा अङ्ग हैं। इसमें 2 श्रुतस्कन्ध, 23 अध्ययन, 33 उद्देशनकाल, 33 समुद्देशनकाल और 36 हजार पद हैं। शेष वाचनादि का कथन आचाराङ्गवत् है। 3. विधिमार्गप्रपा में3-इसमें स्पष्ट रूप से प्रथम श्रुतस्कन्ध के 16 और द्वितीय श्रुतस्कन्ध के 7 अध्ययन गिनाये गए हैं। द्वितीय श्रुतस्कन्ध के अध्ययनों को महाध्ययन कहा है। समवायाङ्ग में कथित सूत्रकृताङ्ग के 23 अध्ययन हो यहाँ गिनाये हैं परन्तु कहीं-कहीं किञ्चित् नामभेद है। यथा 5वां वीरस्तुति, 13वां अहतहं, 14 वाँ गन्ध (सम्भवत: यह लिपिप्रमाद है), 20वां प्रत्याख्यानक्रिया और 21वां अनगार। (ख) दिगम्बर ग्रन्थों में 1. तत्त्वार्थवार्तिक में4-सूत्रकृताङ्ग में ज्ञानविनय, प्रज्ञापना, कल्प्याकल्प्य, छेदोपस्थापना और व्यवहारधर्मक्रिया का प्ररूपण हैं। 2. धवला में 5- सूत्रकृताङ्ग में 36 हजार पद हैं। यह ज्ञानविनय, प्रज्ञापना, कल्प्याकल्प्य, छेदोपस्थापना और व्यवहारधर्मक्रिया का निरूपण करता है। स्वसमय और परसमय का भी निरूपण करता है। 3. जयधवला में6- सूत्रकृताङ्ग में स्वसमय और परसमय का वर्णन है। इसके साथ ही इसमें स्त्रीसम्बन्धी-परिणाम, क्लीवता, अस्फुटत्व (मन की बातों को स्पष्ट न कहना), कामावेश, विलास, आस्फालनसुख, पुरुष की इच्छा करना आदि स्त्री के लक्षणों का प्ररूपण है। 4. अङ्गप्रज्ञप्ति में7 - सूत्रकृताङ्ग में 36 हजार पद हैं। यहां सूत्रार्थ तथा उसके करण को संक्षेप से सूचित किया गया है। ज्ञान-विनय आदि, निर्विघ्न अध्ययन आदि, सर्व सत्क्रिया, प्रज्ञापना, सुकथा, कल्प्य, व्यवहारवृषक्रिया, छेदोपस्थापना, यतिसमय, परसमय और क्रियाभेदों का अनेकशः कथन है। 5. प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी टीका ( प्रभाचन्द्रकृत ) में8- सूत्रकृताङ्ग के 23 अध्ययनों के नाम तथा उनमें प्रतिपादित विषयों का कथन है। समवायाङ्गोक्त अध्ययन-नामों से इसके नामों में कुछ भिन्नता है। (ग) वर्तमान रूप 309