________________ अङ्ग आगमों के विषयवस्तु-सम्बन्धी उल्लेखों का श्वेताम्बर और दिगम्बर आगमों के आधार पर तुलनात्मक विवेचन [श्वेताम्बर मान्यतानुसार देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण की वलभीवाचना (वी.नि.सं.980) में 'दृष्टिवाद' नामक 12वाँ अङ्ग-आगम छोड़कर शेष ग्यारह अङ्गों का सङ्कलन करके लिपिबद्ध कर दिया गया था जो आज प्रकाशित हैं। दिगम्बर परम्परा के अनुसार कर्णपरम्परा से समागत सभी 12 अङ्ग ग्रन्थ विस्मृत हो गए हैं जो आज उपलब्ध नहीं हैं / गुणधराचार्य प्रणीत (वि.पू. प्रथम शताब्दी) कषायपाहुड और षटखण्डागम (धरसेनाचार्य ई. सन् 73) से सुनकर पुष्पदन्त भूतबलि प्रणीत (ई. सन् 1-2) ये दो ग्रन्थ दृष्टिवाद के अंशांश के ज्ञाताओं द्वारा रचित ग्रन्थ हैं जिन पर धवला और जयधवला टीकाएँ पाई जाती हैं। आज ये ग्रन्थ ही मान्य हैं। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं के ग्रन्थों में जो विषयवस्तु द्वादशाङ्ग वाणी की मिलती है उसका इस शोधात्मक आलेख में विस्तार से कथन है। वर्तमान श्वेताम्बरीय अङ्ग आगम पूर्णतः उस रूप में नहीं मिलते जिससे उनमें परवर्ती संशोधन ज्ञात होते हैं।] भगवान् महावीर ने अपनी दिव्यवाणी द्वारा जिस वस्तु-स्वरूप का प्रतिपादन किया, उसे अत्यन्त निर्मल अन्तःकरण वाले तथा बुद्धिवैभव के धनी गणधरों ने आचाराङ्ग आदि द्वादश अङ्गग्रन्थों के रूप में ग्रथित करके अपने पश्चाद्वर्ती आचार्यों को श्रुत-परम्परा से प्रदान किया। श्रुत की इस अलिखित परम्परा का स्मृति-लोप होने से क्रमशः ह्रास होता गया। श्वेताम्बर-मान्यतानुसार स्मृति-परम्परा से प्राप्त ये अङ्ग ग्रन्थ देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण की वलभीवाचना (वीर नि0 सं 980) के समय लिपिबद्ध किए गए। दृष्टिवाद नामक 12वाँ अङ्ग-ग्रन्थ उस समय किसी को याद नहीं था, अत: वह लिपिबद्ध न किया जा सका। इसके पूर्व भी आचार्य स्थूलभद्र द्वारा पाटलिपुत्र (वीर नि0 सं0 219) में तथा आय स्कन्दिल द्वारा माथुरी वाचना (वीर नि0 8वीं शताब्दी) में भी इन 11 अङ्ग ग्रन्थों का सङ्कलन किया गया था परन्तु उस समय उन्हें लिपिबद्ध नहीं किया गया था। दिगम्बर-परम्परा इन वाचनाओं को प्रामाणिक नहीं मानती है। उनके अनुसार वीर नि0 सं0683 तक श्रुतपरम्परा चली, जो क्रमश: क्षीण होती गई। अङ्ग-ग्रन्थों के लिपिबद्ध करने का कोई प्रयत्न नहीं किया गया, फलत: सभी अङ्ग ग्रन्थ लुप्त हो गए। इतना विशेष है कि वे दृष्टिवाद नामक 12वें अङ्गान्तर्गत पूर्वो के अंशांश के ज्ञाताओं द्वारा (वीर नि0 7वीं शताब्दी में) रचित षटखण्डागम और कषायपाहुड को तथा वीर निर्वाण की 14वीं शती में रचित इनकी धवला और जयधवला टीकाओं को आगम के रूप में मानते हैं। बारह अङ्गों के नाम उभय-परम्परा में मान्य 12 अङ्ग-ग्रन्थों के नाम क्रमश: इस प्रकार हैं-(1) आचाराङ्ग, (2) सूत्रकृताङ्ग, (3) स्थानाङ्ग, (4) समवायाङ्ग, (5) व्याख्याप्रज्ञप्ति (अपरनाम भगवती'), (6) ज्ञाताधर्मकथा ( नाथधर्मकथा), (7) उपासकदशा (उपासकाध्ययन), (8) अन्तकृद्दशा ( अन्तकृद्दश) (9) अनुत्तरोपपादिकदशा (अनुत्तरौपपादिकदश), (10) प्रश्नव्याकरण, (11) विपाकसूत्र और (12) दृष्टिवाद / छठे से नौवें तक के कोष्ठकान्तर्गत नाम दि0 परम्परा में प्रचलित हैं। इन अङ्गों के क्रम में कहीं कोई अन्तर नहीं मिलता है। साधारण नाम-भेद अवश्य पाया जाता है। जैसे-छठे और सातवें अङ्गका नाम दिगम्बर ग्रन्थों में क्रमश: 'नाथधर्मकथा' (णाहधम्मकहा) तथा 'उपासकाध्ययन' (उवासयज्झयणं) मिलता है। इसी प्रकार पाँचवें व्याख्याप्रज्ञप्ति' का प्राकृत नाम श्वे० ग्रन्थों में विवाहपन्नत्ती' मिलता है जबकि दि0 ग्रन्थों में 'वियाहपण्णत्ती' है जो व्याख्याप्रज्ञप्ति के अधिक निकट है। गोम्मटसार जीवकाण्ड में सूत्रकृताङ्ग का प्राकृतनाम "सुद्दयडं" मिलता है जबकि स्थानाङ्ग आदि में 'सूयगडो' और धवला आदि में सूद्दयदं' मिलता है। तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में दृष्टिवाद को 'दृष्टिपात' कहा है जो चिन्त्य है। श्वे० ग्रन्थों में अन्तकृद्दशा' और 'अनुत्तरौपपादिकदशा' के लिए क्रमश: 'अन्तगडदसाओ' और 'अणुत्तरोववाइअदसाओ' नाम हैं जबकि दि0 ग्रन्थों में "अन्तयडदसा" और 'अणुत्तरोववादियदसा' नाम मिलते हैं। 306