Book Title: Siddha Saraswat
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 314
________________ गृहीतग्राही हैं, कैसे प्रमाणता हो सकेगी ? इस द्विविधा से छुटकारा पाने के लिए कुछ विद्वान् कथञ्चिद् अपूर्वार्थता का समाधान प्रस्तुत करते हैं और आचार्य अकलङ्क, विद्यानन्दि, माणिक्यनन्दि आदि के सिद्धान्तलक्षणों का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। परन्तु यह समाधान मुझे उचित प्रतीत नहीं होता। जैसा कि मैं इस विषय में पहले भी लिख चुका हूँ कि अकलङ्कदेव अपूर्वार्थक के समर्थक नहीं थे। उन्होंने स्वयं अपूर्वार्थता का खण्डन भी किया है। आचार्य माणिक्यनन्दि जो कि अपने लक्षण में अपूर्व पद का निवेश करते हैं। उनके सम्मुख भी यह समस्या आई और उन्होंने अपूर्वार्थ का स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि एक तो वह अपूर्वार्थ है जिसका पहले किसी प्रमाण से निश्चय नहीं किया गया। यहां इतना विशेष है कि यदि किसी पदार्थ के बारे में दूसरे ज्ञान से कुछ विशेषता लिए हुए प्रतीति होती है तो वह भी अपूर्वार्थ ही है क्योंकि उसमें सूक्ष्म विषय अथवा काल भेद है जो पहले ज्ञान से ज्ञात नहीं था। यदि ऐसा न माना जाता तो अवग्रह, ईहा, अवाय आदि ज्ञान के प्रकारों में जो कि एक ही विषय का ग्रहण करते है, प्रमाणता नहीं सिद्ध होती दूसरे वह भी ज्ञान अपूर्वार्थ है जो पहले से ज्ञात तो है परन्तु उसमें सन्देह आदि (समारोप) उत्पन्न हो जाने से धूमिलता आ गई है। ऐसा मानने से स्मृति आदि में प्रमाणता बन जाती है। इससे स्पष्ट है कि माणिक्यनन्दि को कुछ न कुछ विशेषता लिए हुए अपूर्वार्थ विषयक ज्ञान में ही प्रमाणता अभीष्ट है। परन्तु जिस धारावाहिक ज्ञान में सूक्ष्म कालभेद (पर्यायभेद) प्रतीति में नहीं आ रहा हो वह पिष्टपेषण मात्र होने से प्रमाण नहीं है। इस तरह कुछ गृहीतग्राही ज्ञानों में (जिनमें सूक्ष्म विषय या कालभेद है) तो प्रमाणता है और कुछ (जिनमें सूक्ष्म विषयादि का भेद नहीं है) में नहीं है। गृहीतग्राही ज्ञान के प्रामाण्य का समर्थन- वस्तुतः यदि जैन स्याद्वाद सिद्धान्त से विचार किया जाए तो प्रमाण के लक्षण में 'अपूर्व' पद देने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि ज्ञान चाहे गृहीतग्राही हो अथवा अगृहीतग्राही यदि वह सम्यक् है तो प्रमाण है, यदि असम्यक् है तो अप्रमाण है। क्या द्वितीयादि क्षण में होने वाला धारावाहिक ज्ञान अप्रमाण माना जाता है ? सर्वज्ञ को युगपत् एक काल में जब समस्त द्रव्य व उनकी त्रिकालवर्ती समस्त पर्यायों का ज्ञान हो जाता है तो क्या द्वितीयादि क्षण का ज्ञान अप्रामाणिक हो जाता है ? उत्तर होगा नहीं ? तब फिर क्या कारण है कि गृहीतग्राही ज्ञान को स्मृति, ईहा आदि ज्ञानों की तरह प्रमाण न माना जाए। वस्तुतः जैन दर्शन में गृहीतग्राहिता और ग्रहीष्यमाणग्राहिता (अगृहीतग्राहिता जिसका भविष्य में ग्रहण किया जाय) में सर्वथा भेद न तो द्रव्य की अपेक्षा सम्भव है और न पर्याय की अपेक्षा / द्रव्य दृष्टि से समस्त पदार्थ जैन दर्शन में नित्य और एकरूप (सत्) माने गए हैं जिससे गृहीत और ग्रहीष्यमाण अवस्थाकृत भेद ही नहीं बनता है। पर्याय की अपेक्षा समस्त द्रव्य हर क्षण नूतन-नूतन अवस्था को धारण करने के कारण गृहीतग्राही कथमपि सम्भव नहीं है। फिर क्यों प्रमाण के लक्षण में 'अपूर्व' पद रखा जाए। कोई शंका करे कि हमें पर्यायकृत भेद परिलक्षित नहीं होता अतः 'अपूर्व' पद देना उचित है, परन्तु यह शंका ठीक नहीं है क्योंकि यहां एक तो सिद्धान्त का विचार है, हमें ज्ञान होता है अथवा नहीं इससे तात्पर्य नहीं, अन्यथा दर्शन, अवग्रह, ईहा आदि में जहाँ सामान्यत, भेद परिलक्षित नहीं होता है वहां तथा अन्य जहां लोकव्यवहार से सिद्धान्तलक्षणों का विरोध होता है, वहां सर्वत्र अव्यवस्था हो जायगी। दूसरे सर्वज्ञ के विषय में क्या करेंगे, तीसरे गृहीतग्राही में अप्रमाणता का व्यवहार भी नहीं होता है। इस प्रकार अनेक कारणों से धारावाहिक ज्ञान को भी प्रमाण मानना चाहिए। इस तरह सिद्ध होता है कि ज्ञान चाहे 'अपूर्व' अर्थ को विषय करे चाहे ज्ञात विषय को, सभी समान रूप से प्रमाण हैं। हेमचन्द्र ने ठीक ही कहा है : ग्रहीष्यमाण ग्राहिण इव गृहीतग्राहिणोऽपि नाप्रामाण्यम्। -प्रमाणमीमांसा, 1.1.4. अर्थ - ग्रहीष्यमाणग्राही (अपूर्वार्थग्राही ) की तरह गृहीतग्राही ज्ञान भी अप्रमाण नहीं है। मालूम पड़ता है प्रमाण का साक्षात् फल 'अज्ञाननिवृत्ति' मानने से ही गृहीतग्राही को प्रमाण नहीं माना जाता है क्योंकि गृहीतग्राही ज्ञान नूतन अज्ञाननिवृत्ति को नहीं करता है। यदि कहा जाये कि उस ज्ञान से क्या प्रयोजन जो अज्ञाननिवृत्ति आदि नवीनता को न देवे ? इस विषय में मेरा कहना है कि एक तो किसी विषय को बारम्बार जानने से उसमें स्थायित्व पैदा होता है जो कि प्रथम ज्ञान से नहीं हुआ था, दूसरे ज्ञान का फल उपेक्षा को भी माना गया है जो कि सर्वज्ञ (तथा साधारण लोगों) के लिए प्रमुख फल है। वस्तुतः प्रमाण का साक्षात् फल 'अर्थप्रकाश' ही है जो कि प्रमाण से भिन्न भी है और अभिन्न भी है। यह अर्थप्रकाश गृहीतग्राही ज्ञान में भी हमेशा पाया जाता है वह भी प्रमाण है। हेमचन्द्र ने इसीलिए प्रमाण का साक्षात् फल 'अर्थप्रकाश' बतलाया है तथा 'अज्ञाननिवृत्ति को बाद में 'वा' पद के उल्लेख के साथ दिखलाया गया है। यह अज्ञाननिवृत्ति रूप फल वहीं होगा जहां अज्ञात मौजूद होगा और जहां अज्ञाननिवृत्ति पहले से हुई रहेगी वहां केवल अर्थप्रकाश मात्र से प्रमाणता रहेगी। अर्थप्रकाश और अज्ञाननिवृति के एक साथ होने से (कोई कालभेद 294

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