________________ न होने से) दोनों को साक्षात् फल और त्यागादि रूप बुद्धि के बाद में उत्पन्न होने से परम्परया (व्यवहित) फल मानने में कोई बाधा नहीं है। प्रमाण के लक्षण में 'स्व' पद की स्थिति का विचार- प्रमाण के लक्षण के सन्दर्भ में स्वपद देने की भी आवश्यकता नहीं है, जैसा कि हेमचन्द्र ने कहा है।" वस्तु में जितने धर्म पाये जाते हैं उन सभी को लक्षण में नहीं कहा जाता (और न ऐसा करना सम्भव ही है क्योंकि प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म रहते हैं) अपितु जो धर्म विपक्ष (अलक्ष्य) से व्यावर्तन करे उसे ही कहना चाहिए। स्वनिर्णय जैसे प्रमाण में है वैसे ही अप्रमाण संशयादि में भी है, अतः वह विपक्ष से व्यावर्तक धर्म नहीं हुआ। सूत्र अथवा लक्षण लघु ही होना चाहिए। हां, प्रतिपक्षी जो कि ज्ञान को स्वसंवेदी नहीं मानते उनके खण्डन के लिए 'स्व' पद का निवेश किया जा सकता है। अथवा तदर्थ अलग से ज्ञान शब्द का निर्वचन किया जा सकता है। 'अर्थ' पद की स्थिति का विचार- यदि हेमचन्द्र के 'सम्यगर्थनिर्णयः प्रमाणम्' इस प्रमाण लक्षण को और छोटा करके 'सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्' इतना किया जाए तो काम चल सकता है। प्रमाण लक्षण में जिस प्रकार उन्होंने 'स्व' पद को देना निरर्थक माना है उसी प्रकार 'अर्थ' पद भी निरर्थक है क्योंकि ज्ञान से अर्थ का ही निर्णय नहीं होता अपितु ज्ञान का भी निर्णय होता है। दुसरे 'अर्थ' पद का आक्षेप कर लिया जा सकता है क्योंकि सूत्र सोपस्कार होते हैं। यहां 'सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्' इस प्रमाण लक्षण में एक शंका और रह गई हैं कि ऐसा लक्षण करने पर सम्यग्ज्ञान रूप प्रमा (प्रमिति) में अतिव्याप्ति हो जायेगी। इसका समाधान न्यायदीपिका में दिया हुआ है कि यहां ज्ञान पद (ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानम्) करण साधन के अर्थ में प्रयुक्त है, न कि भावसाधन (ज्ञाप्तिमात्रं ज्ञानम्) के अर्थ में क्योंकि प्रमा के कारण को ही प्रमाण कहा गया है अत: उसके साथ एकार्थप्रतिपादकत्वरूप शब्द सामानाधिकरण्य तभी बन सकता है जब ज्ञान को करणसाधन माना जाए। अतः कोई दोष नहीं है। कर्ता, करण और भाव में प्रमाणता- इस सन्दर्भ में एक बात और स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि जैन दर्शन में प्रमाण शब्द की निरुक्ति कतृसाधन (प्रमिणोतीति प्रमाणम्), करणसाधन (प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणम्) और भावसाधन (प्रमिति मात्र प्रमाणम्) तीन प्रकार से की गई है। इससे प्रमाणता आत्मा में और प्रमा में भी चली जाती है। फिर क्यों न्यायदीपिकाकार ने केवल करणसाधन परक ही प्रमाण शब्द को लेकर सामानाधिकरण्य रूप समाधान प्रस्तुत किया है। समाधान यह है कि भावसाधन और कर्तृ साधन में जो प्रमाणता मानी जाती है वह दूसरी अपेक्षा से है। यहाँ जो विचार है वह करणसाधन की अपेक्षा से है। अत: कोई दोष नहीं है। जब कर्तृसाधनपरक निरुक्ति से कर्ता (आत्मा) में प्रमाणता मानी जाती है तब आत्मा के ज्ञानस्वरूप होने से आत्मा और ज्ञान में अभेद माना जाता है। जब करणसाधनपरक निरुक्ति से करण (ज्ञान) में प्रमाणता मानी जाती है तब आत्मा से ज्ञान गुण को भिन्न माना जाता है और जब भावसाधन से भाव (ज्ञप्ति) में प्रमाणता मानी जाती है तब ज्ञान मात्र में प्रमाणता होती है और प्रमा ही प्रमाण हो जाती है। ऐसा होने पर भी फल का अभाव नहीं होता है क्योंकि उसके बाद प्रीति आदि देखी जाती है। उपसंहार- इस तरह सिद्ध हुआ है कि प्रमा का करण सम्यग्ज्ञान ही हो सकता है, इन्द्रियादि नहीं। मैं चक्षु से देखता हूँ' 'धूम से अनुमान करता हूँ, 'शब्द से जानता हूँ इत्यादि इन्द्रियपरक जो व्यवहार होता है वह उपचार से होता है। क्योंकि अर्थावबोध में इन्द्रियाँ भी सहकारी कारण होती हैं, साधकतम नहीं देखा भी जाता है कि इन्द्रिय का पदार्थ के साथ सन्निकर्ष होने पर भी कभी-कभी ज्ञान नहीं होता है (जैसे चक्षु में स्थित काजल का, घट के साथ आकाश का आदि, और कभी-कभी सन्निकर्ष न होने पर भी (चक्षु से बाहर स्थित पदार्थ आदि का) ज्ञान हो जाता है। अत: वास्तविक प्रमाणता तो, सम्यग्ज्ञान में ही है और वह ज्ञान स्वसंवेदी व निश्चयात्मक (व्यवसायात्मक) है। ज्ञान में अपूर्व विशेषण आवश्यक नहीं है क्योंकि द्रव्य दृष्टि से सभी ज्ञान गृहीतग्राही हैं और पर्यायदृष्टि से सभी अगृहीतग्राही। जिन विद्वानों ने ज्ञान के साथ अपूर्व विशेषण का प्रयोग किया है वह या तो पर्याय दृष्टि से है अथवा परीक्षार्थ प्रयोग किया है। सन्दर्भ सूची 1. अनधिगतार्थगन्तृत्वं च धारावाहिकविज्ञानानामधिगतार्थगोचराणां लोकसिद्धप्रमाणभावानां प्रामाण्यं विहन्तीति-नाद्रियामहे / न च काल भेदेनाधिगतगोचरत्वं धारावाहीकानामिति युक्तम् / परमसूक्ष्माणां कालकलादिभेदानां पिशित-लोचनैरस्मोऽशैरनाकलनात् / तस्मादर्थप्रदर्शनमात्रव्यापारमेव ज्ञानप्रवर्तकं प्रापकं च / प्रदर्शनं च पूर्ववदुत्तरेषामपि विज्ञानानामभिन्नमिति कथं पूर्वमेव प्रमाणे नोत्तराण्यपि। -न्यायवार्तिक तात्पर्य टीका, वाचस्पति मिश्र, पृ0 21, द्रष्टव्य-न्यायमञ्जरी, पृ0 22, कन्दली, पृ0 61. 295