________________ 3. मूर्तिपूजक श्वेताम्बर परम्परा -- 34 अङ्गबाह्य ग्रन्थ है। जैसे - 12 उपांग, 5 छेदसूत्र (पञ्चकल्प को जोड़कर), 5 मूलसूत्र (उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, आवश्यकनन्दि और अनुयोगद्वार), 8 अन्य ग्रन्थ (कल्प, जीतकल्प, यतिजीतकल्प, श्राद्धजीतकल्प, पाक्षिक, श्रामणा, नन्दि और ऋषिभाषित), 10 प्रकीर्णक, 12 नियुक्तियाँ और विशेषावश्यक महाभाष्य। ___ इस तरह श्वेताम्बर परम्परा में 11 अङ्गों को जोड़कर स्थानकवासी 32, मूर्तिपूजक 45 तथा अन्य मूर्तिपूजक 84 आगमों को मानते हैं। इनके नामों में भी कुछ अन्तर है। इनकी रचना अर्धमागधी प्राकृत भाषा में की गई है जबकि दिगम्बरों के आगम ग्रन्थ जैन शौरसेनी प्राकृत भाषा में लिखे गये हैं। आगम-विभाजन के प्रकार अङ्ग, उपांग आदि के रूप में श्वेताम्बर आगमों का स्पष्ट विभाजन सर्वप्रथम भावप्रभसूरि (18वीं शताब्दी) द्वारा विरचित जैनधर्मवरस्तोत्र (श्लोक 30) की स्वोपज्ञ टीका में मिलता है। प्राचीन परम्परा में आगमों को प्रथमतः आवश्यक और आवश्यकव्यतिरिक्त के रूप में विभक्त किया गया है। इसके पश्चात् आवश्यकव्यतिरिक्त के कालिक और उत्कालिक ये दो भेद किये गये हैं। जिनका अध्ययन किसी निश्चित समय (दिन एवं रात्रि के प्रथम और अन्तिम प्रहर) में किया जाता है उन्हें कालिक और जिनका अध्ययन तदतिरिक्त काल में किया जाता है उन्हें उत्कालिक कहते हैं। उत्तराध्ययन आदि कालिक श्रुत हैं, तथा दशवैकालिक आदि उत्कालिक। कालिक और उत्कालिक का यह भेद केवल अङ्गबाह्य ग्रन्थों में था परन्तु परवर्तीकाल में श्वेताम्बरों ने दृष्टिवाद को छोड़कर शेष 11 अङ्गों को कालिक में गिनाया है। दृष्टिवाद को लुप्त मान लेने से उसको न तो कालिक बतलाया है और न उत्कालिक। आवश्यक में पहले सामायिक आदि छ: ग्रन्थ थे, जिनका आज एक आवश्यकसूत्र में समावेश है। आगम ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय अङ्ग ग्रन्थ 1. आचाराङ्ग -- इसमें विशेष रूप से साधुओं के आचार का प्रतिपादन किया गया है। इसके दो श्रुतस्कन्ध हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध का नाम ब्रह्मचर्य है जिसका अर्थ है 'संयम' यह श्रुतस्कन्ध द्वितीय श्रुतस्कन्ध से प्राचीन है। इसमें शस्त्रपरिज्ञा आदि 9 अध्ययन हैं। द्वितीय श्रुतस्कन्ध में चार चूलायें हैं जिनका 18 अध्ययनों में विभाजन है। इसकी पञ्चम चूला 'निशीथ' आज अचाराङ्ग से पृथक् ग्रन्थ के रूप में प्रसिद्ध है। प्रथम श्रुतस्कन्ध के 'महापरिज्ञा' नामक समग्र अध्ययन का लोप हो गया है, परन्तु उस पर लिखी गई नियुक्ति उपलब्ध है। 2 सूत्रकृताङ्ग -- इसमें धार्मिक उपदेशों के साथ जैनेतर मतावलम्बियों के सिद्धान्तों का खण्डन है। इसके भी दो श्रुतस्कन्ध हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध में 18 और द्वितीय श्रुतस्कन्ध में 7 अध्याय हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध प्राचीन है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्रथम श्रुतस्कन्ध के परिशिष्ट के समान है। भारत के धार्मिक सम्प्रदायों का ज्ञान कराने की दृष्टि से दोनों श्रुतस्कन्ध महत्त्वपूर्ण हैं। 3. स्थानाङ्ग -- इसमें एक स्थानिक, द्वि-स्थानिक आदि क्रम से 10 स्थानिक या अध्ययन हैं जिनमें एक से लेकर 10 तक की संख्या के अर्थों का कथन है। इसमें वस्तुओं का निरूपण संख्या की दृष्टि से किया जाने से यह संग्रह प्रधान कोश शैली का ग्रन्थ है। 4. समवायाङ -- यह ग्रन्थ भी स्थानाङ्ग की शैली में लिखा गया कोश ग्रन्थ है। इसमें 1 से वृद्धि करते हुए 100 समवायों का वर्णन है। एक प्रकीर्ण समवाय है, जिसमें 100 से आगे की संख्याओं का समवाय बतलाया गया है। अन्त में 12 अङ्ग ग्रन्थों का परिचय भी है। दिगम्बरों के ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि स्थानाङ्ग और समवायाङ्ग की शैली में कुछ अन्तर था। 5. व्याख्यापज्ञप्ति (भगवती)-- व्याख्यात्मक कथन होने से इसे व्याख्याप्रज्ञप्ति कहते हैं। पूज्य और विशाल होने से इसे श्वेताम्बर 'भगवती' भी कहते हैं। यह कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। प्रारम्भ के 20 शतक प्राचीन हैं। 6. शाताधर्मकथा -- इसके दो श्रुतस्कन्ध हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध में 19 अध्ययन हैं और द्वितीय श्रुतस्कन्ध में धर्मकथाओं के 10 वर्ग हैं। इस कथा ग्रन्थ की मुख्य और अवान्तर कथाओं में आई हुई अनेक घटनाओं से तथा विविध प्रकार के वर्णनों से तत्कालीन इतिहास और संस्कृति की जानकारी मिलती है। 7. उपासकदशा -- इसमें आनन्द आदि 10 उपासकों की कथायें हैं। प्रायः सभी कथायें एक जैसी हैं। 8. अन्तकृद्दशा -- 'अन्तकृत्' शब्द का अर्थ है - संसार का अन्त करने वाले। इसमें ऐसे ही अन्तकृतों की कथा है। इसमें 8 वर्ग हैं जिनमें प्रथम 6 वर्ग कृष्ण और वासुदेव से सम्बन्धित हैं, षष्ठ और सप्तम वर्ग भगवान महावीर के शिष्यों 300