________________ अर्थात् जिस समय जो पर्याय आने वाली है वही आएगी उसमें परिवर्तन नहीं हो सकता है। इससे पुरुषार्थ का निषेध और निश्चित भाग्यवाद की पुष्टि होती है। इसका यह भी तात्पर्य है कि सभी स्व-पर प्रत्यय पर्यायें भी पूर्व निश्चितक्रमानुसार होने से क्रमबद्ध हैं। (2) केवलज्ञान का विषय होना- सर्वज्ञ के केवलज्ञान में प्रतिसमय युगपत् सम्पूर्ण द्रव्यों की त्रैकालिक सभी स्वपर प्रत्यय पर्यायें प्रतिभासित होती हैं। अत: स्व-पर प्रत्यय पर्यायों को भी क्रमबद्ध हो मानना चाहिए अन्यथा अक्रमबद्ध (अनियतक्रम) होने पर उन स्व-पर प्रत्यय पर्यायों का केवलज्ञान में प्रतिसमय युगपत् क्रमबद्ध प्रतिभासित होना असम्भव है। ये दो ही मुख्य तर्क हैं जिनके आधारपर स्व-पर प्रत्यय पर्यायों को क्रमबद्ध सिद्ध किया जाता है। पुरातन सिद्धान्तवादियोंका उत्तरपक्ष (1) क्रमनियमित' का सही अर्थ- आत्मख्याति टीका के 'क्रमनियमित' शब्द का अर्थ 'क्रमवर्ती समयके साथ नियमित (बद्ध)' यह सोनगढी अर्थ ठीक नहीं है अपितु एक जातीय स्व-पर प्रत्यय पर्यायें एक के पश्चात् एक रूप क्रम में नियमित (बद्ध) यह अर्थ उचित है। (2) उत्पत्ति और ज्ञप्तिका भेद - यह निर्विवाद सत्य है कि सर्वज्ञ के केवलज्ञान में त्रैकालिक स्व-पर प्रत्यय पर्याय युगपत् एक ही समय में क्रमबद्ध ही प्रतिभासित होती हैं परन्तु इस आधार पर उन पर्यायों की उत्पत्ति को भी क्रमबद्ध मानना न्यायसङ्गत नहीं है क्योंकि उन त्रैकालिक पर्यायों का केवलज्ञान में युगपत् एक ही समय में क्रमबद्ध प्रतिभासित होना अन्य बात है तथा उनकी उपादान, प्रेरक तथा उदासीन निमित्तकारणों के बल से यथासम्भव क्रमबद्ध या अक्रमबद्ध रूप में उत्पन्न होना अन्य बात है। अत: उत्पत्ति की अपेक्षा विचार करने पर स्व-पर प्रत्यय पर्यायें प्रेरक और उदासीन निमित्त कारण-सापेक्ष होने से क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध दोनों सिद्ध होती हैं। ज्ञप्ति की अपेक्षा विचार करने पर हम कह सकते हैं कि उत्पन्न हुई, उत्पन्न हो रही और आगे उत्पन्न होने वाली उन पर्यायों का प्रतिभासन केवलज्ञान में युगपत् एक ही समय में क्रमबद्ध रूप में होता है। पर्यायों की उत्पत्ति का निश्चय श्रुतज्ञान के आधार पर सम्भव है केवलज्ञान के विषय-आधार पर नहीं। दोनों सिद्धान्तों में भेद का हेतु पुरातन सिद्धान्तवादी स्व-पर प्रत्यय पर्याय की उत्पत्ति में देश और काल को महत्त्व न देकर निमित्तकारणभूत बाह्यसामग्री को महत्त्व देते हैं परन्तु सौनगढ़ी स्व-पर प्रत्यय पर्याय की उत्पत्ति में उपादानकारणभूत अन्तरङ्ग सामग्री को महत्त्व देते हुए भी निमित्तकारणभूत बाह्यसामग्री को महत्त्व न देकर उस देश और काल को महत्त्व देते हैं जहाँ और जिस काल में पर्याय की उत्पत्ति हुई थी, हो रही है या होगी। अर्थात् देश-काल को नियामक मानते हैं। परन्तु पुरातन सिद्धान्ती देश काल को कार्योत्पत्ति में उपयोगी नहीं मानते हैं। कार्यकारणभाव अन्वय-व्यतिरेक के आधार पर उपादान और निमित्त सामग्री को साथ ही मानते हैं। यही दोनों में भेद का हेतु है। वस्तुतः देश और काल भी उदासीन बाह्य निमित्तकारण ही है। केवलज्ञान की विषय-मर्यादा इसके अतिरिक्त पूर्ण क्षायिक केवलज्ञान में संयुक्त या बद्ध पदार्थों का प्रतिभासन संयुक्त या बद्ध दशा में संयुक्त या बद्ध रूप से न होकर पृथक्-पृथक् रूप में होता है परन्तु मति-अवधि और मन:पर्ययज्ञानों में बद्ध पदाथोंका ज्ञान बद्ध रूप से ही होता है। अत: सभी जीव और पुद्गल परस्पर बद्ध होते हुए भी जब केवलज्ञान में सतत् अपनी द्रव्यरूपता, गुणरूपता या पर्यायरूपता-सहित पृथक्-पृथक् ही प्रतिभासित हो रहे हैं तो उस स्थिति में उन पदार्थों की संयुक्तदशा का एवं जीव-पुद्गलकी बद्धदशा का प्रतिभासन केवलज्ञान में नहीं हो सकता है। केवलज्ञान में जब प्रतिक्षण पदार्थों की पृथक्-पृथक् रूपता का प्रतिभासन हो रहा है तो उनकी अवास्तविक दशा का प्रतिभासन सम्भव नहीं। अत: केवलज्ञान के प्रतिभासन हेतु से 'स्व-पर प्रत्यय पर्यायों की क्रमबद्धतामात्र सिद्ध नहीं होती है। यह केवलज्ञान की विषय-मर्यादा कहाँ तक आगमोचित है-इसका विद्यावारिधि वाणीभूषण श्यामसुन्दरलाल शास्त्री ने अपने प्राक्कथन (पृ0 2) में सङ्केत किया है। वस्तुतः केवलज्ञान की विषय-मर्यादा के सन्दर्भ में विद्वान् लेखक ने जो अपना पक्ष दिया है वह विद्वानों के विचारार्थ दिया है। अत: उनपर आक्षेप करना उचित नहीं। इस तरह सूक्ष्मदर्शी विद्वान् जो न केवल वैयाकरण ही हैं अपितु एक अच्छे आगमज्ञ और दार्शनिक भी हैं, ने 298