________________ मूलसूत्रों में गिनते हैं। ऐसा इन ग्रन्थों के महत्त्व के कारण है। 1. उत्तराध्ययन -- यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण और प्राचीन ग्रन्थ है। इसमें 36 अध्ययन हैं जिनमें कुछ आख्यानप्रधान हैं, कुछ उपदेशात्मक हैं और कुछ दार्शनिक सिद्धान्तों के प्रतिपादक हैं। 2. दशवकालिक -- यह भी उत्तराध्ययन की तरह प्राचीन और महत्त्वपूर्ण हैं। इसमें 10 अध्ययन है तथा विकाल (सन्ध्याकाल) में अध्ययन किया जाने के कारण इसका नाम दशवैकालिक है। मुनि का आचार प्रतिपादित करना इसका मुख्य विषय है। इसके रचयिता स्वयम्भव है। 3. आवश्यक -- इसमें सामायिक आदि 6 नित्यकर्म प्रतिपादक ग्रन्थ सम्मिलित हैं। 4. पिण्डनियुक्ति - यह साधु के पिण्ड (आहार) का प्रतिपादक है। (5-6.) नन्दी और अनुयोगद्वार -- ये दोनों आगमों के परिशिष्ट जैसे हैं। नन्दी दूष्यगणि के शिष्य देववाचक की और अनुयोगद्वार आर्यरक्षित की रचना है। (7) ओघनियुक्ति -- ओघ का अर्थ है सामान्य। इसमें साधु के सामान्य आचार-विचार का दृष्टान्त शैली में वर्णन है। यह भी भद्रबाहु की रचना है। (8) पाक्षिकसूत्र -- यह आवश्यक का अङ्ग है क्योंकि इसमें साधु के पाक्षिक प्रतिक्रमण का वर्णन है। छेदसूत्र -- इनमें साधु एवं साध्विनियों के प्रायश्चित्त विधि का वर्णन है। आगमों के प्राचीनतम अंश होने से महत्त्वपूर्ण है। ये संक्षिप्त शैली में लिखे गये हैं। बौद्धों के विनयपिटक से इनकी तुलना की जा सकती है। इनकी संख्या के विषय में मतभेद है। ये संख्या में अधिक से अधिक छ: माने गये हैं और कम से कम चार / छेदसूत्र जैन आचार की कुञ्जी है तथा जैन संस्कृति की अद्वितीय निधि है। 1. दशाश्रुतकन्ध (आचारदशा)-- इसमें 10 अध्ययन हैं। मुख्यतया यह गद्य में है। इसके रचयिता आचार्य भद्रबाहु 2. बृहत्कल्प (कल्पसूत्र)-- इसमें 6 उद्देशक हैं जो गद्य में लिखे गये हैं। 3. व्यवहार -- इसमें 20 उद्देशक हैं जिसमें करीब 1500 सूत्र हैं। छेदसूत्रों में इसका सबसे अधिक महत्त्व है। 4. महानिशीथ -- इसमें 6 अध्ययन एवं दो चूलायें हैं। भाषा और विषय की दृष्टि से यह प्राचीन नहीं लगता है। वस्तुतः महानिशीथ नष्ट हो गया है। उपलब्ध महानिशीथ (जो निशीथ से छोटा है) हरिभद्रसूरि कृत उद्धार है। 6. जीतकल्प -- इसके रचयिता भाष्यकार जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण हैं। इसमें 103 गाथायें हैं। कुछ विद्वान् इसके स्थान पर पञ्चकल्प नाम देते हैं। प्रकीर्णक- प्रकीर्णक का अर्थ है विविध। इनकी संख्या हजारों में है, परन्तु वलभीवाचना में 10 प्रकीर्णकों को मान्यता दी गई थी। वर्तमान में मुख्य रूप से 10 प्रकीर्णक माने जाते हैं। यद्यपि इनके नामों में एकरूपता नहीं है फिर भी निम्न 10 प्रकीर्णक प्रमुख हैं जो मूर्तिपूजकों को विशेष रूप से मान्य हैं -- 1. चतुःशरण (कुशलानुबन्धि अध्ययन)-- इसमें 63 गाथायें हैं। इसमें अरहंत, सिद्ध साधु और केवलि कथित धर्म को शरण माना गया है। अत: इसे चतु:शरण कहते हैं। 2. आतुरप्रत्याख्यान (अन्तकाल प्रकीर्णक) -- इसमें 70 गाथायें तथा कुछ गद्य भाग है। इसमें बालमरण और पण्डितमरण का विवेचन है। 3. महाप्रत्याख्यान -- इसमें 142 गाथाओं द्वारा प्रत्याख्यान (त्याग) का वर्णन किया गया है। 4. भक्तिपरिज्ञा -- इसमें 172 गाथाओं द्वारा भक्तपरिज्ञा नामक मरण का वर्णन किया गया है। 5. तन्दुलवैचारिक -- इसमें 139 गाथायें तथा कुछ सूत्र हैं। इसमें नारी जाति के विषय में तथा गर्भ के विषय में वर्णन है। 100 वर्ष की आयु वाला मनुष्य कितना तन्दुल (चावल) खाता है, इसका विचार होने से इसका नाम तन्दुलवैचारिक पड़ गया है। 6. संस्तारक -- इसमें 123 गाथायें हैं जिनमें मृत्यु के समय अपनाने योग्य संस्तारक (तृण आदि की शय्या) का महत्त्व वर्णित है। 7. गच्छाचार -- इसमें 137 गाथायें हैं जिनमें गच्छ (समूह) में रहने वाले साधु-साध्वियों के आचार का वर्णन है। यह महानिशीथ, कल्प (बृहत्कल्प) तथा व्यवहारसूत्र के आधार पर लिखा गया है। 302