________________ 8. गणिविद्या -- इसमें 82 गाथायें हैं जिनमें ज्योतिष विद्या का वर्णन है। 9. देवेन्द्रस्तव -- इसमें 307 गाथाओं द्वारा 32 देवेन्द्रों का वर्णन किया गया है। 10. मरणसमाधि (मरणविभक्ति)-- इसमें 683 गाथायें हैं। इसमें समाधिमरण का 14 द्वारों में विवेचन किया गया है। नोट :-- श्वेताम्बर मूर्तिपूजक गच्छाचार और मरणसमाधि के स्थान पर निम्न दो प्रकीर्णक मानते हैं11. चन्द्रवेध्यक -- इसमें 175 गाथायें हैं। इसमें मृत्यु के समय थोड़ा भी प्रमाद नहीं करना चाहिए' इसका वर्णन है। 12. वीरस्तव -- इसमें 43 गाथाओं में भगवान महावीर की स्तुति है। आगमिक व्याख्या साहित्य मूल आगम ग्रन्थों के रहस्य का उदघाटन करने के लिए व्याख्यात्मक साहित्य लिखा गया। इनमें ग्रन्थकार ग्रन्थ के गूढार्थ को प्रकाशित करने के साथ-साथ अपनी मान्यता की भी प्रतिस्थापना करते हैं। कई व्याख्या ग्रन्थ तो इतने प्रसिद्ध और महत्त्वपूर्ण हो गये कि उन्हें मूल आगम ग्रन्थों में मिला लिया गया। इससे व्याख्या साहित्य का महत्त्व प्रकट होता है। भारतीय संस्कृति, कला, पुरातत्त्व, दर्शन, इतिहास, साहित्य आदि कई दृष्टियों से इनका महत्त्वपूर्ण योगदान है। इस व्याख्या साहित्य को 5 भागों में विभक्त किया जाता है -- 1. नियुक्ति (निज्जुति) -- प्राकृत भाषा में पद्यबद्ध व्याख्या। 2. भाष्य (भास) -- प्राकृत भाषा में पद्यबद्ध व्याख्या। 3. चूर्णि ( चुण्णि) -- संस्कृत-प्राकृत मिश्रित गद्यात्मक व्याख्या। 4. संस्कृत टीकायें। 5. लोकभाषा में रचित टीकायें। इनके अतिरिक्त आगमों के विषयों का संक्षेप में परिचय देने वाली संग्रहणियाँ भी बहुत प्राचीन है। पञ्चकल्पमहाभाष्य के उल्लेखानुसार संग्रहणियों की रचना आर्य कालक ने की है। पाक्षिकसूत्र में भी संग्रहणी का उल्लेख मिलता है। नियुक्तियाँ इनमें प्रत्येक पद का व्याख्यान न करके विशेष रूप से पारिभाषिक शब्दों का व्याख्यान है। इनकी व्याख्यान शैली निक्षेप पद्धति के रूप में प्रसिद्ध है। इस शैली में किसी एक पद के कई सम्भावित अर्थ करने के बाद उनमें से अप्रस्तुत अर्थ का निषेध करके प्रस्तुत (प्रासंगिक) अर्थ का ग्रहण किया जाता है। अतः शब्दार्थ निर्णय (निश्चय) का नाम नियुक्ति है। आवश्यकनियुक्ति में आचार्य भद्रबाहु (गाथा 88) में स्पष्ट लिखा है कि एक शब्द के कई अर्थ होते हैं, उनमें से कौन सा अर्थ किस प्रसङ्ग के लिए उपयुक्त है, भगवान महावीर के उपदेशकाल में किस शब्द से कौन सा अर्थ सम्बद्ध रहा है, आदि बातों को दृष्टि में रखकर सम्यक् अर्थ निर्णय तथा मूलसूत्र के शब्दों के साथ सम्बन्ध स्थापित करना नियुक्ति का उद्देश्य है। इस तरह पारिभाषिक शब्दों की सुस्पष्ट व्याख्या करना नियुक्तियों का प्रयोजन है। इतिहास, दर्शन, संस्कृति, भूगोल, भाषाविज्ञान आदि दृष्टियों से इनका अध्ययन कई महत्त्वपूर्ण सूचनाओं को देने वाला है। ये पद्यात्मक हैं तथा प्राकृत भाषा में लिखी गई हैं। इनका रचनाकाल वि.सं. 500-600 के मध्य माना जाता है। इनके प्रसिद्ध रचयिता है -- आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय)। इन्होंने निम्न दशनियुक्तियों को लिखा है-- 1. आवश्यकनियुक्ति -- यह आचार्य भद्रबाहु की प्रथम कृति है। आवश्यकसूत्र की यह नियुक्ति अन्य नियुक्तियों की अपेक्षा अति महत्त्वपूर्ण है। इसका प्रारम्भिक उपोद्धात सबसे महत्त्वपूर्ण अंश है। इस नियुक्ति पर जिनभद्र, जिनदासगणि आदि ने विविध टीकायें लिखीं हैं। भिन्न-भिन्न व्याख्याओं में इसकी गाथा संख्या भिन्न-भिन्न है। माणिक्यशेखर की दीपिकाटीका में इस नियुक्ति की 1615 गाथायें हैं। कहीं-कहीं जिनभद्रकृत विशेषावश्यकभाष्य की गाथायें भी नियुक्ति गाथाओं में मिली हुई हैं। 2. दशवैकालिकनियुक्ति -- इसमें पुष्प, धान्य, रत्न आदि पदों के व्याख्यान से विविध विषयों की सम्यक् जानकारी मिलती है। 3. उत्तराध्ययननियुक्ति -- इसमें विविध पदों की नियुक्ति के प्रसङ्ग में अङ्ग की व्याख्या करते हुए गंधाङ्ग, औषधाङ्ग, मद्याङ्ग, शरीराङ्ग, युद्धाङ्ग आदि के भेद-प्रभेदों का वर्णन है। सत्रह प्रकार के मरण की भी व्याख्या है। 4. आचाराङ्गनियुक्ति -- इसके प्रारम्भ में आचाराङ्ग का अङ्ग में प्रथम स्थान माने जाने का हेतु बतलाया गया है। अन्त 303