________________ 'पर्यायें क्रमबद्ध भी होती हैं और अक्रमबद्ध भी': एक समीक्षा सरस्वती वरदपुत्र पण्डितप्रवर बंशीधर व्याकरणाचार्य द्वारा रचित एतद्विषयक प्रस्तुत लघुकाय ग्रन्थ विषय की दृष्टि से बहुत गम्भीर है। आपकी अन्य रचनायें भी गम्भीर विषयों का ही प्रतिपादन करती हैं। 'भाग्य और पुरुषार्थ' प्रस्तुत ग्रन्थ का पूरक ग्रन्थ है क्योंकि पर्यायों को यदि क्रमबद्ध ही माना जायेगा तो भाग्यवादीकी विजय होगी और यदि अक्रमबद्ध ही माना जाएगा तो पुरुषार्थवादी की विजय होगी। यदि क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध दोनों ही माना जायेगा तो भाग्य-पुरुषार्थ दोनों का समन्वय होगा। द्रव्यस्वरूप और पर्यायों की द्विविधता जैनदर्शन के अनुसार द्रव्य का स्वरूप है 'सत्' और 'सत्' उसे कहते हैं जो उत्पत्ति और विनाशरूप पर्यायों के होते रहने पर भी ध्रुव (नित्य) बना रहे। इसी अर्थ का पोषक द्रव्य का दूसरा लक्षण भी है जिसमें गुण और पर्यायें हों वह द्रव्य है। इन दोनों लक्षणों में भेद नहीं है अपितु दोनों परस्पर पूरक हैं। इसका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है प्रत्येक द्रव्यमें स्वाभाविक रूप से स्वतः सिद्ध अनन्त गुण रहते हैं तथा प्रत्येक द्रव्य में द्रव्यपर्याय और गुणपर्यायें रहती हैं। इस तरह पर्यायें दो तरह की होती है-(1) द्रव्य पर्यायें और (2) गुण पर्यायें / चूँकि गुण द्रव्य के स्वत: सिद्ध स्वभाव हैं। अत: गुण भी 'सत्' कहलाते हैं। प्रत्येक द्रव्य और प्रत्येक गुण में हमेशा उत्पाद व्यय की प्रक्रिया चालू रहती है। द्रव्य और गुणकी स्व-स्व उत्तरपर्याय की उत्पत्ति का नाम है 'उत्पाद्' और उनकी स्व-स्व पूर्वपर्याय के विनाश का नाम है 'व्यय'। पर्यायों के बदलने पर भी द्रव्य अपनी द्रव्यरूपता को और गुण अपनी गुणरूपता को कभी नहीं छोड़ते हैं। अतः वे नित्य हैं, सत् हैं। ग्रन्थ का उद्देश्य सभी द्रव्यपर्यायें स्व-पर प्रत्यय होती हैं तथा षट्गुणहानि-वृद्धिरूप गुणपर्यायों को छोड़कर शेष सभी गुणपर्यायें भी स्व-पर प्रत्यय होती हैं। षट्गुणहानिवृद्धिरूप गुणपर्याय स्वप्रत्यय ही होती हैं। जो पर्याय निमित्तकारणभूत बाह्यसामग्री की सहायता के बिना ही मात्र उपादानकारणजन्य हो वह स्वप्रत्ययपर्याय है। जो पर्याय निमित्तकारणभूत बाह्यसामग्री की सहायतापूर्वक उपादानकारणजन्य हो वह स्व-पर प्रत्यय पर्याय है। स्वप्रत्यय पर्यायें क्रमबद्ध होती हैं और स्व-पर प्रत्यय पर्यायें क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध दोनों रूप होती हैं। यही सिद्ध करना इस पुस्तक के लिखने का उद्देश्य है। क्रमबद्धता का अर्थ है पर्यायों का नियतक्रम से उत्पन्न होना और अक्रमबद्धता का अर्थ है पर्यायों को अनियतक्रम से उत्पन्न होना। यहाँ इतना विशेष है कि एकजातीय दो आदि अनेक पर्यायें कदापि युगपत् एक ही समय में उत्पन्न नहीं होतीं अपितु एक जातीय पर्यायें एक के पश्चात् एकरूप क्रम से ही उत्पन्न होती हैं। इसमें किसी को भी विवाद नहीं है। विवाद का स्थल है स्व-पर प्रत्यय पर्यायों को बाह्यनिमित्तकारण सापेक्षता के आधार पर अक्रमबद्ध माना जाए या नहीं। स्व-परप्रत्यय पर्यायों की उत्पत्ति के सन्दर्भ में मुख्य दो मत हैं(1) पुरातन सिद्धान्तवादी-ज्ञप्ति की अपेक्षा स्व-पर प्रत्यय पर्यायें क्रमबद्ध होने पर भी उत्पत्ति को अपेक्षा क्रमबद्ध और अक्रमबद्ध दोनों होती हैं। (2) सोनगढ सिद्धान्तवादी-उत्पत्ति और ज्ञप्ति दोनों अपेक्षाओं से स्व-पर प्रत्यय पर्यायें क्रमबद्ध ही होती हैं, अक्रमबद्ध नहीं। सोनगढ़ सिद्धान्तवादियोंका पूर्वपक्ष सोनगढ़ सिद्धान्तवादियों के पास अपनी मान्यता को बल देनेवाले मुख्यरूप से दो तर्क हैं(1) आत्मख्याति टीका का क्रमनियमित शब्द-समयसार के सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार की 308-11 तक की गाथाओं की आत्मख्याति टीकामें आया है-'जीवो हि तावत् क्रमनियमितात्मपरिणामैरुत्पद्यमानो जीव एव नाजीव, एवमजीवोऽपि क्रमनियमितात्मपरिणामैरुत्पद्यमानोऽजीव एव न जीवः।' यहाँ आए 'क्रमनियमित' शब्द की व्याख्या करते हुए डॉ. हुकुमचन्द भारिल्ल ने अपनी पुस्तक 'क्रमबद्ध पर्याय' पृष्ठ 123 पर लिखा है-क्रम = क्रमसर तथा नियमित= निश्चित। 297