________________ प्रमाण-स्वरूप में स्वापूर्वार्थ विचार (द्वितीय भाग) धारावाहिक या गृहीतग्राही ज्ञान के विषय में विभिन्न दर्शनों का दृष्टिकोण : उपर्युक्त प्रमाण के विभिन्न लक्षणों से ज्ञात होता है कि किन्हीं-किन्हीं दार्शनिकों ने प्रमाण के लक्षण में अपूर्व या अनधिगत शब्दों का प्रयोग किया है। अपूर्व और अनधिगत शब्दों का अर्थ है-जिसका अब से पहले ज्ञान न हुआ हो। इससे वे ज्ञान ही प्रमाण कोटि में आते हैं जो पहले से ज्ञात नहीं रहते हैं। अब प्रश्न उपस्थित होता है कि धारावाहिक अथवा गृहीतग्राही ज्ञान में प्रमाणता मानी जाय अथवा नहीं। यह घट है, 'यह घट है' इस प्रकार लगातार द्वितीयादि क्षण में जो एक ही घट का ज्ञान होता रहता है उसे धारावाहिक ज्ञान कहते हैं। प्रथम क्षण में जाने हुए पदार्थ को ही द्वितीयादि क्षण में पुनः जानना गृहीतग्राही ज्ञान है। इस विषय पर प्रायः सभी दार्शनिकों ने विचार किया है। प्रायः अधिकांश दार्शनिक इस प्रकार के ज्ञान में प्रामाण्य ही स्वीकार करते हैं परन्तु उनके प्रतिपादन की पद्धति भिन्न-भिन्न है। इसमें प्रामाण्य सिद्ध करने का प्रयत्न विशेष रूप से उन्हें करना पड़ता है जो अनधिगत अथवा अपूर्व पदों का प्रमाण के लक्षण में सन्निवेश करते हैं। विभिन्न दर्शनों की इस विषय में विचार-सरणि इस प्रकार है : न्याय-वैशेषिक-न्याय-वैशेषिक ग्रन्थों में धारावाहिक ज्ञान को प्रमाण माना गया है। उनका विचार है कि ज्ञान का काम अर्थ-प्रदर्शन मात्र है और वह अर्थ-प्रदर्शन प्रथम ज्ञान की तरह द्वितीयादि ज्ञानों में भी है फिर क्यों प्रथम ज्ञान को तो प्रमाण माना जाय और द्वितीयादि को न माना जाय। ये द्वितीयादि ज्ञान में सूक्ष्म काल-भेद (क्षणविशिष्ट घट का ग्रहण) नहीं मानते हैं। क्योंकि चक्षु आदि इन्द्रियों से उस सूक्ष्म कालभेद का ग्रहण सम्भव नहीं है। नैयायिक लोग ज्ञातविषया स्मृति को जो प्रमाण नहीं मानते हैं उसका कारण उसकी गृहीतग्राहिता नहीं है अपितु पदार्थ से उत्पन्न न होना (क्योंकि स्मृतिस्थल में पदार्थ मौजूद नहीं रहता है, केवल संस्कार रहता है) ही है। इस तरह नैयायिक धारावाहिक गृहीतग्राही समस्त ज्ञान को सूक्ष्म कालभेद माने विना ही प्रमाण मानते हैं। सांख्य-योग- यद्यपि सांख्य-दर्शन में धारावाहिक ज्ञान की प्रमाणता अथवा अप्रमाणता का विचार नहीं मिलता है परन्तु अनधिगत अर्थ को विषय करने वाली चित्तवृत्ति (बुद्धिव्यापार) को प्रमाण माना गया है। इससे यहां भी गृहीतग्राही ज्ञान प्रमाण ही ठहरता है क्योंकि समाधिस्थल में चित्त-वृत्ति के एकाकार रूप परिणत होने पर भी उसे प्रमाण माना गया है। वेदान्त- वेदान्त दर्शन में भी धारावाहिक स्थल में भी ज्ञान (अन्तःकरण की वृत्ति) का भेद नहीं माना जाता है अपितु जब तक घटादि एक ही विषय का लगातार अनुभव होता रहता है तब तक घटादि विषयाकार में परिणत हुई अन्तःकरण की वृत्ति एक ही रहती है। एकाकार ज्ञान में अनेकाकार अन्त:करणवृत्ति नहीं होती। अतः वेदान्त दर्शन में अनधिगत और अबाधितविषय ज्ञानत्व होने पर भी धारावाहिक बुद्धि के प्रामाण्य में कोई दोष नहीं है। मीमांसक- यद्यपि मीमांसकों के दोनों सम्प्रदाय धारावाहिक ज्ञान में प्रामाण्य स्वीकार करते हैं परन्तु उनकी विचार पद्धति भिन्न-भिन्न है। जैसे प्रभाकर मतानुयायी सूक्ष्म काल भेद को स्वीकार न करके भी अनुभूति मात्र होने से (पूर्वोत्तर विज्ञानों में उत्पत्तिकृत और प्रतीतिकृत कोई विशेषता न होने से) उसे प्रमाण मानते हैं। परन्तु कुमारिल भट्ट के मतानुयायी सूक्ष्म कालभेद का ग्रहण स्वीकार करके उसे प्रमाण मानते हैं। क्योंकि इनके प्रमाणलक्षण में 'अपूर्व' पद का निवेश किया गया है। इनके मत से चक्षु आदि इन्द्रियों से भी कालभेद ग्रहण हो जाता है। बौद्ध - बौद्धों ने 'अज्ञातार्थज्ञापक' को प्रमाण माना है, अत: इनके यहां गृहीतग्राही ज्ञान प्रमाण नहीं है। परंतु अर्चट ने हेतुबिन्दु की टीका में योगियों के धारावाहिक ज्ञान को सूक्ष्म कालभेद ग्रहण करने के कारण प्रमाण माना है और सामान्य लोगों द्वारा सूक्ष्म कालभेद ग्रहण न होने से उनके ज्ञान को अप्रमाण माना है। जैन- जैनों के श्वेताम्बर सम्प्रदाय में प्रमाण के लक्षण में अपूर्व, अनधिगत जैसे शब्दों का प्रयोग न होने से सर्वत्र धारावाहिक ज्ञान में प्रमाणता इष्ट है परन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय में कुछ दार्शनिकों द्वारा अपूर्व पद का सन्निवेश किये जाने से धारावाहिक बुद्धि स्थल में द्विविधा पैदा हो गई है कि धारावाहिक गृहीतग्राही ज्ञान को प्रमाण माना जाए अथवा नहीं। यदि प्रमाण मानते हैं तो अपूर्व विशेषण निरर्थक हो जाता है और यदि प्रमाण नहीं मानते हैं तो स्मृति आदि ज्ञानों में जो 293