________________ वाच्य मानना लिङ्ग-व्यभिचार है। जैसे- स्त्रीवाचक नारी (स्त्रीलिङ्ग) और कलत्रम् (नपुंसकलिङ्ग) ये भिन्न-भिन्न लिङ्ग वाले होने से पर्यायवाची नहीं बन सकते। इसी तरह होने वाला कार्य हो गया' यहाँ काल व्यभिचार है, 'कृष्ण ने (कतृ कारक) मारा' और 'कृष्ण को (कर्मवारक) मारा' यहाँ कृष्ण में कारक व्यभिचार है। (6)समभिरूढ़ नय-लिङ्गादि का भेद न होने पर भी शब्द व्युत्पत्ति के आधार पर अर्थ-भेद करना समभिरूढ़ नय है। जैसे-इन्द्र (आनन्दयुक्त), शक्र (शक्तिशाली) और पुरन्दर (नगर-विदारक) में; राजा (शोभायमान), भूपाल (पृथिवीपालक) और नृप (मनुष्यों का पालक) में लिङ्गादि-व्यभिचार नहीं है। अतः ये परस्पर एकार्थवाची होने से शब्दनय की दृष्टि से पर्यायवाची हो सकते हैं परन्तु इन शब्दों की व्युत्पत्ति भिन्न-भिन्न होने से समभिरूढ़नय की दृष्टि से ये एकार्थवाची नहीं हैं। अतः पर्यायवाची नहीं बन सकते। इस तरह शब्दभेद से अर्थभेद करना समभिरूढ़नय का कार्य है। (7) एवम्भूत नय-जिस शब्द का जिस क्रिया रूप अर्थ हो, उस क्रियारूप से परिणत पदार्थ को ही ग्रहण करने वाला वचन या ज्ञान एवम्भूतनय है। इस नय की दृष्टि से सभी शब्द क्रियावाचक हैं। अत: शब्द के वाच्यार्थ का निर्धारण उसकी क्रिया के आधार पर किया जाता है / जैसे आनन्दोपभोग करते समय ही देवराज को इन्द्र कहना, अध्यापक जब पढ़ा रहा हो तभी अध्यापक कहना; आदि / ये सातों नय उत्तरोत्तर सूक्ष्म-विषयग्राही हैं। लक्षणा और व्यञ्जना वृत्तियों का प्रयोग नैगमनय के ही अधीन है। जब वस्तु का कथन किसी एक नय की दृष्टि से किया जाता है तो वहाँ अन्य नयों की दृष्टि को गौण कर दिया जाता है। नय वस्तु के एकांश या एक धर्म को ही ग्रहण करता है। प्रत्येक वस्तु में अनेक धर्म पाये जाते हैं। जिनमें से एक-एक नय एक-एक धर्म को विषय करता है। यदि कोई एक नय की दृष्टि को ही पूर्ण सत्य समझेगा तो वह दुर्नयानुगामी कहलायेगा। आवश्यकतानुसार एक को मुख्य और शेष को गौण करते हुए सातों नयों की सापेक्षता से ही वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जाना जा सकता है। इस तरह नय और निक्षेप विधियों के द्वारा ही वाक्यार्थ तथा शब्दार्थ का निर्धारण जैनदर्शन में किया जाता है। यहाँ इतना विशेष है कि वाच्यार्थ न केवल विधिरूप होता है और न केवल निषेधरूप। जब हम विधि का कथन करते हैं तो वहाँ निषेध (अन्य-व्यावृत्ति) गौण रहता है और जब निषेध का कथन करते हैं तो वहाँ विधि गौण होता है। शब्दों के द्वारा एक साथ विधि-निषेध का कथन नहीं किया जा सकता; अत: उसे अवक्तव्य कहा जाता है। इस कथन-प्रक्रिया को जैनदर्शन में सप्तभङ्गी शब्द से कहा गया है-(1) स्यादस्ति, (स्वापेक्षया विधि कथन), (2) स्यान्नास्ति (परापेक्षया निषेध-कथन), (3) स्यादस्ति नास्ति (स्व-परापेक्षया विधि-निषेध का क्रमशः कथन), (4) स्यादवक्तव्य (स्वपरापेक्षया विधि-निषेध का युगपत् कथन), (5) स्यादस्ति अवक्तव्य, (6) स्यान्नास्ति अवक्तव्य, और (7) स्यादस्ति नास्ति अवक्तव्य। अन्तिम तीन भङ्ग ऊपर के चार भङ्गों के सम्मिश्रण हैं। जैन दर्शन में वाच्यार्थ के सत्यासत्य का भी विस्तार से विचार किया गया है। सर्वत्र अनेकान्तदृष्टि या स्याद्वाददृष्टि का सहारा लिया गया है। प्रमाण-स्वरूप (प्रथम भाग) 'प्रमाण' शब्द का प्रयोग दर्शनशास्त्र तथा लोकव्यवहार में उभयत्र मिलता है। लोकव्यवहार में प्रमाण शब्द का प्रयोग विभिन्न अर्थों में मिलता है, जैसे लम्बाई-चौड़ाई का माप, परिमाण, सीमा, साक्ष्य, यथार्थ- प्रत्यय, सम्मोदन, निश्चायक, वह जिसका शब्द विश्वसनीय माना जाये, यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने का उपाय आदि। परन्तु दर्शनशास्त्र में इस शब्द का प्रयोग किसी खास अर्थ में किया जाता है, जैसा कि प्रमाण (प्र +मा+ ल्युट) शब्द की व्युत्पत्ति से ही स्पष्ट है'प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणम्' जिसके द्वारा जाना जाय अर्थात् जो पदार्थों के जानने का साधन हो। यहाँ इतना विशेष है कि ज्ञान यथार्थ हो तथा साधकतम साधन (=करण = साधकतम कारण = विशिष्ट कारण-जिसके तुरन्त बाद बिना व्यवधान के फल प्राप्ति हो। अत: साधकतम कारण को करण, यथार्थ ज्ञान को प्रमा और प्रमा के करण को प्रमाण कहा जाता है। इस तरह प्रमाण में निम्नलिखित दो बातें होनी चाहिए : यथार्थ ज्ञान की जनकता और विशिष्ट साधनता। 1. यथार्थ ज्ञान की जनकता : इससे मिथ्याज्ञान के जनक में प्रमाणता का खण्डन हो जाता है। 2. विशिष्ट साधनता : इससे यथार्थ ज्ञान के जनक विभिन्न सामान्य कारणों में प्रमाणता का खण्डन तथा अपने 286