________________ अव्यवहित उत्तरवर्ती क्षण में निश्चयपूर्वक फलोत्पादक साधन में प्रमाणता की स्थापना। विभिन्न दर्शनों में प्रमाण का स्वरूप : यद्यपि प्रमाण के उपर्युक्त स्वरूप में किसी को विवाद नहीं है परन्तु प्रमा का करण किसे माना जाय इस विषय को लेकर दार्शनिकों में मतभेद है जिसे दो पक्षों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम पक्ष के अनुसार ज्ञानभिन्न इन्द्रियसन्निकर्षादि तथा द्वितीय पक्ष के अनुसार ज्ञान ही प्रमा का जनक है। सामान्यत: जो ज्ञानभिन्न इन्द्रियादि (अज्ञानरूप अचेतन) में प्रमाणता स्वीकार करते हैं वे ज्ञान को प्रमाण का फल (प्रमा या प्रमिति) मानते हैं। और जो ज्ञान में ही प्रमाणता स्वीकार करते हैं वे या तो अज्ञाननिवृत्ति एवं हेय-उपादेयउपेक्षा बुद्धि आदि को प्रमाण का फल मानते हैं अथवा अर्थप्रकाशरूप ज्ञान को ही उसका फल मानते हैं। इसे स्पष्ट करने के पूर्व विभिन्न दार्शनिक परम्पराओं के प्रमाण-लक्षण पर विहङ्गम दृष्टि डालना आवश्यक है। न्याय-वैशेषिक (योग): वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक महर्षि कणाद ने 'निर्दोष ज्ञान' को प्रमाण का सामान्य लक्षण बतलाया है। न्याय दर्शन के प्रवर्तक महर्षि गौतम के न्यायसूत्र में यद्यपि प्रमाण का लक्षण उपलब्ध नहीं होता है परन्तु उसके भाष्यकार वात्स्यायन ने उपलब्धिसाधन (प्रमाकरण) को प्रमाण बतलाया है। इसी प्रकार उद्योतकर और जयन्तभट्ट आदि ने भी प्रमा के करण को प्रमाण कहा है। इन लक्षणों के आधार पर न्याय-वैशेषिक दर्शन में इन्द्रिय, इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष (सम्बन्धविशेष) और ज्ञान इन तीनों में प्रमाणता स्वीकार की गई है। इसका खुलासा इस प्रकार है-नैयायिक प्रमाण और फल के बीच में एक व्यापार मानते हैं और उस व्यापार से प्रमाण और फल के मध्य व्यवधान नहीं मानते हैं। जैसे कुठार (करण) से छेदन क्रिया (फल) करने पर कुठार और लकड़ी का संयोगरूप व्यापार आवश्यक है उसी प्रकार इन्द्रियों (प्रमाण) से घट-पटादि का ज्ञान (प्रमा) होने पर इन्द्रिय और घटादि पदार्थ का (संयोगादि) सन्निकर्षरूप व्यापार भी अवश्यम्भावी है। जैसे कुठार और लकड़ी के सम्बन्ध-बिना छेदन क्रिया असम्भव है उसी प्रकार इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्षसम्बन्धविशेष के बिना प्रमिति (ज्ञान) भी असम्भव है। यहाँ इतना विशेष है कि जब इन्द्रियाँ प्रमाण होती हैं तो इन्द्रियार्थसन्निकर्ष व्यापार और निर्विकल्पक ज्ञान फल होता है। जब इन्द्रियार्थसन्निकर्ष को प्रमाण माना जाता है तो निर्विकल्पक ज्ञान (विशेषण-विशेष्य का सम्बन्धानवगाही ज्ञान) व्यापार और सविकल्पक ज्ञान (सम्बन्धावगाही ज्ञान) फल होता है; जब निर्विकल्पक ज्ञान को प्रमाण माना जाता है तो सविकल्पक ज्ञान व्यापार और हेय-उपादेय-उपेक्षाबुद्धि फल होती है। यह तो हुआ प्रत्यक्ष स्थल में परन्तु अनुमिति आदि स्थल में ज्ञान करण (प्रमाण) होता है और परामर्शादि व्यापार / जैसे-11 प्रमाण करण व्यापार 1. इन्द्रियाँ इन्द्रियार्थसन्निकर्ष निर्विकल्पकज्ञान 2. इन्द्रियार्थसन्निकर्ष निर्विकल्पकज्ञान सविकल्पकज्ञान 3. निर्विकल्पकज्ञान सविकल्पकज्ञान हेय-उपादेय-उपेक्षा बुद्धि अनुमानव्याप्तिज्ञान लिङ्गपरामर्श अनुमिति (अग्न्यादिज्ञान) उपमानसादृश्यज्ञान अतिदेशवाक्यार्थ स्मरण उपमिति (यह गवय है ऐसा शक्ति ज्ञान) शब्दपदज्ञान पदजन्यपदार्थ स्मरण शाब्दी (शाब्दबोध) कोई-कोई प्राचीन नैयायिक कारक-साकल्य(इन्द्रिय, मन, पदार्थ, प्रकाश आदि समस्त ज्ञान सामग्री) को प्रमाण मानते हैं। परन्तु उनके इस कथन की 'प्रमा के करण' के साथ सङ्गति नहीं है। इस तरह न्यायवैशेषिक दर्शन में मुख्य रूप से ज्ञानभिन्न इन्द्रियादि को प्रमाण स्वीकार किया है और ज्ञान को उसका फल। जहाँ ज्ञान को प्रमाण माना है वहाँ ज्ञानान्तर को फल माना गया है तथा प्रमाणरूप प्रथम ज्ञान की प्रमाणता इन्द्रियों के द्वारा ही स्वीकृत है। अर्थात् नैयायिक व वैशेषिक मुख्यत: इन्द्रियों को या इन्द्रियार्थ-सन्निकर्ष को ही प्रमाण मानते हैं और ज्ञान को परम्परया। सांख्ययोग : इन्द्रियवृत्ति सांख्ययोग दर्शन में इन्द्रिय अथवा इन्द्रियार्थसन्निकर्ष को प्रमाण न मानकर इन्द्रियवृत्ति (चक्षु आदि इन्द्रियों अथवा चित्त का विषय के आकाररूप में परिणमन करना = इन्द्रियव्यापार) को प्रमाण माना गया है। परन्तु इन्द्रिय फल प्रत्यक्ष 287