________________ व्यवहारार्थ रिंकू, पप्पू आदि नाम रखना नाम निक्षेप है। इसमें पर्यायवाची शब्द नहीं प्रयुक्त होते हैं क्योंकि एक शब्द से एक ही अर्थ (व्यक्ति) का बोध होता है और वह उसमें रूढ़ हो जाता है। एक नाम वाले कई व्यक्ति भी हो सकते हैं। (2) स्थापना निक्षेप-मूर्ति, चित्र, प्रतिकृति आदि में मूलवस्तु का आरोप करना स्थापना निक्षेप है। इसके दो प्रकार हैं(क) तदाकार स्थापना और (ख) अतदाकार स्थापना। जब मूल वस्तु की आकृति के अनुरूप आकृति वाली वस्तु में मूल वस्तु का आरोप करते हैं तो उसे तदाकार-स्थापना कहते हैं। जैसे भगवान राम की मूर्ति को 'राम' कहना और उसे राम की तरह सम्मान देना। जब मूलवस्तु की आकृति के अनुरूप आकृति के न रहने पर भी उसमें मूलवस्तु का आरोप किया जाता है तो उसे अतदाकार-स्थापना कहते हैं। जैसे शतरंज की मोहरों को राजा, वजीर आदि कहना। (2) द्रव्य निक्षेप--जो अर्थ या वस्तु पूर्वकाल में किसी पर्याय में रह चुकी हो या भविष्य में रहेगी उसे वर्तमान में भी उसी नाम से सङ्केतित करना द्रव्य निक्षेप है। जैसे- सेवानिवृत्त अध्यापक को वर्तमान में भी अध्यापक कहना। डाक्टरी पढ़ने वाले छात्र को वर्तमान में डाक्टर कहना। मिट्टी के ऐसे घड़े को घी का घड़ा कहना जिसमें या तो पहले कभी घी रखा गया था या भविष्य में घी रखा जायेगा परन्तु वर्तमान में घी से कोई सम्बन्ध नहीं है। (4) भाव निक्षेप -जिस अर्थ में शब्द का व्युत्पत्ति निमित्त या प्रवृत्ति-निमित वर्तमान में घटित होता हो उसे तद्प कहना भावनिक्षेप है। जैसे-सेवा कर रहे व्यक्ति को सेवक कहना, खाना पका रहे व्यक्ति को पाचक कहना, आदि। नय पद्धति - वक्ता या ज्ञाता के अभिप्राय विशेष को 'नय' कहते हैं। इससे 'भाषा का अर्थ-विश्लेषण किया जाता है। अभिप्रायों की अनेकता के कारण इसके अनेक भेद सम्भव हैं। किन्तु सामान्य रूप से इसके सात भेद स्वीकृत हैं। जैनदर्शन में नयों का विभाजन कई प्रकार से किया गया है। जैसे द्रव्यार्थिक नय और पर्यायार्थिक नय, निश्चय नय और व्यवहार नय, आदि। परन्तु भाषाशास्त्र की दृष्टि से प्रमुख सात भेद स्वीकृत हैं जिन्हें शब्दनय और अर्थनय के भेद से दो भागों में भी विभक्त किया गया है। जैसे(1) अर्थनय - इसमें नैगम, सङ्ग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र ये 4 नय आते हैं। (2)शब्दनय-इसमें शब्द, समभिरूढ़ तथा एवम्भूत में 3 नय आते हैं। सातों नयों के स्वरूप निम्न हैं - (1) नैगमनय-वक्ता के सङ्कल्पमात्र या उद्देश्यमात्र को ग्रहण करने वाला नैगमनय कहलाता है। इसमें भूत और भविष्यत् पर्यायों में भी वर्तमान-व्यवहार होता है। औपचारिक कथन इसी नय की दष्टि से सत्य है। क्रियमाण (भविष्यत् क्रिया) को कृत (हो चुकी क्रिया) कहना भी इसी नय से सम्भव है। क्योंकि वर्तमान में जो पर्याय पूर्ण नहीं हुई है उसे इस नय की दृष्टि से पूर्ण माना जाता है। जैसे-डाक्टरी पढ़ने वाले छात्र को भावि लक्ष्य की दृष्टि से वर्तमान में डाक्टर कहना। 'आज कृष्ण जन्माष्टमी है' ऐसा वर्तमानकालिक व्यवहार भूतकालीन घटना का औपचारिक प्रयोग है। अभी पूरा भोजन नहीं बना परन्तु कहना 'भोजन बन गया' क्रियमाण को कृत कहना है। इसमें कुछ कार्य हो चुका है और कुछ होना बाकी है। भात पक गया (चावल का पकना), आटा पिसाना (गेहूं पिसाना) आदि प्रयोग इसी नय की सीमा में आते हैं। (2)सङ्ग्रहनय--व्यष्टि (विशेष या भेद) को गौण करके समष्टि (सामान्य या अभेद) का कथन करना या ज्ञान होना संग्रहनय है / अपनी-अपनी जाति के अनुसार वस्तुओं का या उनकी पर्यायों का एक ही रूप से कथन करना या वैसा ज्ञान होना। जैसे-'जीव' शब्द से सभी एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय प्राणियों को एक कोटि में रखा जाता है। 'भारतीय' कहने से स्त्री, पुरुष, बाल, युवा, गरीब, अमीर आदि सभी भारतवासियों का बोध होता है। (3) व्यवहार नय-समष्टि को गौण करके व्यष्टि का कथन या ज्ञान व्यवहार नय है। इसमें सङ्ग्रह नय से गृहीत पदार्थों में अन्त तक विधिपूर्वक भेद करते जाते हैं। जैसे, 'जीव' के दो भेद- संसारी और मुक्त। संसारी के 4 भेद-देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और नारकी। 'भारतीय' के अन्य भेद-उत्तरप्रान्तीय, दक्षिणप्रान्तीय आदि)। (4)ऋजुसूत्र नय-भूत और भावि पर्यायों को छोड़कर वर्तमान पर्याय को ग्रहण करने वाला वचन या ज्ञान ऋजुसूत्र नय है। यद्यपि एक पर्याय एक समय तक ही रहती है (क्योंकि वस्तु प्रतिक्षण परिवर्तित होती रहती है। इस सिद्धान्त से) परन्तु व्यवहार से स्थूल पर्याय का ग्रहण करना। जैसे जन्म से मृत्यु तक एक मनुष्य पर्याय मानना। (5) शब्द नय- शब्द के लिङ संख्या, कारक, उपसर्ग, काल आदि के भेद से वाच्यार्थ में भेद करना अर्थात् लिङ्ग आदि के व्यभिचार को दूर करने वाले वचन और ज्ञान को शब्द नय कहते हैं। भिन्न-भिन्न लिङ्ग वाले शब्दों का एक ही 285