________________ (Mohandhakaravinasanaya). Aksata (White Rice) Puja- Not to be born again or to end the cycle of birth, life and death. Naivedya (Sweet) Puja- To attain that position where, there remains no desire for food or to eliminate the desire for food. Fala (Fruit) Puja-To attain liberation, the ultimate goal of every living being. Arghya Puja- (Mixture of all eight substances)- To attain anarghyapada that is moksha (nirvana). Jaimala (Adoration) - By reciting the virtues of Tirthankaras to possess similar virtues in our soul. santipatha (Wishing peace) Puja- Wishing peace and happiness for all living beings. Visarjana (Conclusion)-Asking for forgiveness for any mistake or negligence committed during the puja. Arati- To show our respect to lord. The whole purpose of Puja is that by reciting the virtues of Tirthankara, Arhanta, Siddha or Paramesthi, we also remind ourselves that these same virtues are also to be possessed by us and that by taking the path of Tirthankara, we also can attain the liberation. जैन दर्शन में शब्दार्थ-सम्बन्ध मनुष्य अपने विचारों और अनुभूतियों को प्रमुख रूप से शब्दप्रतीकों (सार्थक ध्वनि-सङ्केतों के सुव्यवस्थित रूप) के माध्यम से अभिव्यक्त करता है। भारतीय दर्शन में शब्दार्थ-सम्बन्ध पर गम्भीरता से विचार किया गया है। जैन दार्शनिकों ने भी इस सम्बन्ध में तत्त्वार्थवार्तिक, प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र आदि ग्रन्थों में विस्तृत विचार किया है। शब्दार्थ के सम्बन्ध में जैनेतर भारतीय दार्शनिकों की निम्न मान्यतायें हैं (क) बौद्ध- शब्द और अर्थ का कोई सम्बन्ध नहीं है। शब्द का अर्थ विधिरूप न होकर अन्यापोह (इतर-व्यावृत्ति) रूप है। इनका कहना है कि शब्द और अर्थ में जो वाच्य-वाचक सम्बन्ध माना जाता है वह वस्तुतः कार्यकारणभाव सम्बन्ध से भिन्न नहीं है क्योंकि बुद्धि में अर्थ का जो प्रतिबिम्ब होता है वह शब्दजन्य है; इससे उसे वाच्य कहते हैं तथा शब्द को उसका जनक होने से वाचक कहते हैं। (ख) मीमांसक- ये शब्द और अर्थ का नित्य सम्बन्ध मानते हैं। शब्द को भी नित्य मानते हैं। शब्द का अर्थ सामान्य मात्र होता है, विशेष नहीं, जैसे 'गौ' शब्द 'गो' व्यक्ति का बोधक न होकर 'गोत्व' सामान्य का बोधक है। सामान्य व्यक्ति के बिना नहीं रह सकता है ऐसा नियम होने से सामान्यबोध के पश्चात् लक्षितलक्षणा के द्वारा व्यक्ति-विशेष की प्रतीति होती है। भाट्ट मीमांसक शब्द को द्रव्य मानते हैं और प्रभाकर मीमांसक आकाश का गुण स्वीकार करते हैं / (ग) वैयाकरण- ये 'स्फोट' नामक एक नित्य तत्त्व मानते हैं। इनके अनुसार वर्ण-ध्वनियाँ (वर्ण, पद और वाक्य) क्षणिक हैं, अत: उनसे अर्थबोध नहीं हो सकता है। इन वर्ण-पदादिरूप क्षणिक वर्णध्वनियों से भिन्न स्फोट की अभिव्यक्ति होती है और उससे अर्थ का बोध होता है। इनके मतानुसार केवल संस्कृत शब्दों में ही अर्थबोध की शक्ति है। प्राकृत आदि देशी भाषाओं के शब्दों में नहीं। शब्द ब्रह्मवादी होने से इनके यहाँ शब्द द्रव्यात्मक स्वीकृत है। (घ)न्याय-वैशेषिक- ये शब्द को आकाश का गुण मानते हैं जो आकाश-द्रव्य में समवाय सम्बन्ध से रहता है। शब्द ताल्वादिजन्य होने से अनित्य है। (ङ) सांख्य-योग- शब्द प्रकृति का परिणाम होने से अनित्य है। तथा द्रव्यरूप है। जैन दर्शन की मान्यता : शब्द अनित्य है, शब्दार्थसम्बन्ध अनित्य है तथा शुब्द का विषय सामान्य-विशेषात्मक है। शब्द न तो आकाश