________________ उद्दिष्टत्याग। (श्रमणवत् इसके दो भेद हैं- क्षुल्लक और ऐलक।) इस तरह प्रथम चार प्रतिमाओं के नाम और क्रम में कोई अन्तर नहीं है। श्वेताम्बरों की पाँचवीं नियम प्रतिमा में के स्थान पर दिगम्बरों की छठी रात्रिभुक्ति त्याग प्रतिमा है। ब्रह्मचर्य प्रतिमा श्वेताम्बरों में छठी है और दिगम्बरों में सातवीं है। सचित्तत्याग प्रतिमा श्वेताम्बरों में सातवीं और दिगम्बरों में पाँचवीं है। श्वेताम्बरों की नौवीं भृत्य-प्रेष्यारम्भत्याग दिगम्बरों की परिग्रहत्याग ही है। दिगम्बरों की दसवीं अनुमतित्याग का समावेश श्वेताम्बरों के उद्दिष्टत्याग में माना गया है। दिगम्बरों की ग्यारहवीं उद्दिष्टत्याग प्रतिमा श्वेताम्बरों की ग्यारहवीं श्रमणभूत प्रतिमा है। दोनों परम्पराओं में श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का विवरण निम्न है(क) श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ 1. दर्शन प्रतिमा- यहाँ दर्शन शब्द का अर्थ है 'सम्यक् श्रद्धा'। अत: शंका आदि दोषों से रहित जिनवचन में दृढ़ आस्था (प्रगाढ़ श्रद्धा) रखना। क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि इस प्रतिमा को धारण करता है। वह अपने अणुव्रतों का निरतिचार पालन करता है। न्यायपूर्वक आजीविका चलाता है। चर्मपात्र में रखे घी, तेल आदि का उपयोग नहीं करता है। सङ्कल्पी हिंसा नहीं करता है। अपने आचार-विचार को शुद्ध रखता है। प्रलोभनों से विचलित नहीं होता है। श्वेताम्बरों में इसकी आराधना का काल एक मास है। 2. व्रत प्रतिमा- पाँच अणुव्रतों और सात शीलव्रतों (3 गुणव्रतों और 4 शिक्षाव्रतों) का जिन्हें पाक्षिक श्रावक पालन करता था उनका दृढ़तापूर्वक निरतिचार पालन करना व्रत प्रतिमा है। यहाँ वह सामायिक और देशावकाशिक व्रत को अभ्यासरूप में करता है। अनुकम्पागुण से युक्त होता है। किसी के बारे में अनिष्ट नहीं सोचता। श्वेताम्बरों में इसका आराधनाकाल दो मास है। 3. सामायिक प्रतिमा- प्रतिदिन नियम से तीन बार सामायिक (मन-वचन-काय की एकाग्रता) करना। इसमें वह सामायिक और देशावकाशिक (देशव्रत) का भी निरतिचार पालन करता है। पोषधोपवास को अभ्यासरूप में करता है। श्वेताम्बरों में इसका आराधना काल तीन मास है। 4. पोषध प्रतिमा- अष्टमी, चतुर्दशी तथा पर्व-तिथियों में पोषध (उपवास) व्रत का नियमतः पालन करना पोषध प्रतिमा है। पूर्णिमा, अमावस्या आदि विशिष्ट तिथियों में भी यथाशक्य पोषध करना चाहिए। श्वेताम्बरों में इसका आराधनाकाल चार मास है। 5. नियम या कायोत्सर्ग प्रतिमा- शरीर के साथ ममत्व छोड़कर आत्मचिन्तन में लगना कायोत्सर्ग (ध्यान) है। अष्टमी तथा चतुर्दशी को रात-दिन का कायोत्सर्ग करना। इसे नियम प्रतिमा भी कहते हैं क्योंकि इसमें पाँच नियमों का पालन करना होता है- 1. स्नान न करना, 2. रात्रिभोजन त्याग, 3. धोती की लांग न लगाना, 4 दिन में ब्रह्मचर्य और रात्रि में मर्यादा और 5. माह में एक रात्रि कायोत्सर्ग। श्वेताम्बरों में इसका आराधनाकाल 1 दिन, 2 दिन, 3 दिन, से लेकर पाँच मास तक है। दिगम्बर परम्परा में इसके स्थान पर रात्रिभोजनत्याग और दिवा-मैथुनविरत नाम मिलते हैं। 6. ब्रह्मचर्य प्रतिमा- पूर्णरूपेण काम-चेष्टाओं से विरक्ति ब्रह्मचर्य प्रतिमा है। स्त्रियों/पुरुषों से अनावश्यक मेल-जोल, शृङ्गारिक चेष्टाओं का अवलोकन, कामवर्धक सङ्गीत श्रवण आदि वर्जित है। स्वयं भी शृङ्गारिक वेश-भूषा धारण करना, गरिष्ठ कामवर्धक भोजनपान करना आदि भी वर्जित है। पाँचों इन्द्रियों का संयम जरूरी है। श्वेताम्बरों में इसका आराधनाकाल 1 दिन, 2 दिन, 3 दिन तथा छह मास है। जीवन-पर्यन्त का भी विधान है। 7. सचित्ताहारवर्जन प्रतिमा- सचित्त (सजीव या हरी) वनस्पति का तब तक आहार न करना जब तक वह अचित्त (जीव-रहित) न हो जाए। पकाकर या सुखाकर सचित्त को अचित्त करने पर प्राणि-संयम तो नहीं होता परन्तु इन्द्रियसंयम होता है। कुछ वनस्पतियाँ सप्रतिष्ठ (अगणित-अनन्तकाय जीव वाली) होती हैं और कुछ अप्रतिष्ठ (एक जीव वाली) होती हैं। जिन्हें तोड़ने पर समान रूप से दो भाग हो जाएँ उन्हें सप्रतिष्ठ कहते हैं। इनका छिलका मोटा उतरता है तथा ऊपर की धारियाँ (शिराएँ) स्पष्ट नहीं होती। अप्रतिष्ठ वनस्पतियाँ वे हैं जो तोड़ने पर टेढ़ी-मेढ़ी टूटें, छिलका पतला हो, धारियाँ स्पष्ट हों तथा अलग-अलग फाँकें हों। इस प्रतिमा का साधक खेती आदि आरम्भ-क्रियाओं का त्याग नहीं करता है। श्वेताम्बरों में इसकी आराधना का उत्कृष्ट काल 7 मास है। 8. स्वयं आरम्भवर्जन प्रतिमा (आरम्भत्याग)- प्रतिमाधारी इसमें बच्चों के बड़े हो जाने पर आजीविका हेतु खेती, व्यापार आदि क्रियाएँ स्वयं नहीं करता परन्तु दूसरों से करा सकता है। संपत्ति पर अपना अधिकार रखता है। श्वेताम्बरों में 273