________________ दिगम्बरों के मूलगुणों से कुछ अन्तर भी है। 19. तीर्थङ्कर की माता को 14 स्वप्न आते हैं। 19. तीर्थङ्कर की माता को 16 स्वप्न आते हैं। 20. केवली के ऊपर केवल के पूर्व उपसर्ग सम्भव है। 20. नहीं। पार्श्वनाथ पर उपसर्ग हुण्डावसर्पिणी कालदोष से हुआ। ___परन्तु केवलीज्ञानी होने पर नहीं। 21. मानुषोत्तर पर्वत से आगे मनुष्य जा सकता है। 21. नहीं। 22. अङ्गग्रन्थों के सङ्कलन हेतु वाचनायें हुईं। 22. नहीं। 23. पार्श्वनाथ के चातुर्याम धर्म (अहिंसा, सत्य,अचौर्य और 23. ऐसा नहीं है, परन्तु सामायिकादि चार प्रकार के चारित्र अपरिग्रह) को महावीर ने पञ्चयाम (ब्रह्मचर्य जोड़कर) किया। में छेदोपस्थापना चारित्र जोड़कर पञ्चयाम किया। इस परिवर्तन में श्वेताम्बरवत् कारण थे ।इस परिवर्तन का कारण था मनुष्यों की विचार-भिन्नता। तीर्थङ्कर आदिनाथ के जीव ऋजुजड़ थे। दूसरे से तेईसवें तीर्थङ्कर के काल के जीव ऋजुप्राज्ञ थे परन्तु महावीर के काल के जीव वक्र-जड़ थे। 24. पार्श्वनाथ के शिष्य केशी का साथ संवाद हुआ था और 24. ऐसा उल्लेख नहीं है। अचेल, महावीर के शिष्य गौतम के केशी ने अपने 500 शिष्यों के साथ महावीर का धर्म पञ्चयाम तथा रत्नत्रय धर्म इन्हें भी अभीष्ट हैं। (पञ्चयाम तथा अचेल धर्म) स्वीकार किया था। वस्तुतः 'रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र) दोनों का मूल लक्ष्य था। 25. सुधर्मा गणधर से गुर्वावलि प्रारम्भ है, गौतम गणधर से नहीं। 25. इन्द्रभूति गौतम गणधर से गुर्वावलि प्रारम्भ होती है। इन्होंने ही 12 आज सभी सन्ताने सुधर्मा की हैं। आगमों में कहीं-कही अङ्गों को संयोजित किया और सुधर्मा को सौंपा। सुधर्मा ने जम्बू को सौंपा। गौतम द्वारा प्रश्न किए गए हैं। 26. स्थूलभद्र अन्तिम श्रुतधर (11 14 पूर्वो के ज्ञाता) थे। 26. 683 वर्षों तक अङ्गज्ञान की परम्परा क्षीण होते हुए अङ्ग, वज्रस्वामी 10 पूर्वो के तथा उनके शिष्य आर्यरक्षित भी अविच्छिन्न रही। 9.5 पूर्वो के ज्ञाता थे। तत्पश्चात् पूर्वो का ज्ञान लुप्त हो गया। केवल 11 अङ्ग बचे रह गये। 27. अङ्ग बाह्य (उपाङ्ग, मूलसूत्र आदि) 27. अङ्गबाह्य श्रुत भी लुप्त हो गया। श्रुतों की आज भी सत्ता। है परन्तु उनकी संख्या आदि में कुछ अन्तर है। 28. भगवान् के पैरों का नाखून युक्त 28. मिट्टी में पैर रखने पर जैसे चिह्न बनते हैं वैसे भगवान् के ऊपरी चरण चिह्न पूज्य है। चरण चिह्न पूज्य हैं। 29. अवान्तर पन्थ भेद 29. अवान्तर पन्थ भेद (क) चैत्यवासी या मंदिरमार्गी (चौथी-पाँचवीं शताब्दी)। (क) भट्टारक पंथी (13वीं शताब्दी)। ये मूर्तिपूजक ये मुखपट्टी हैं। हाथों में रखते हैं परन्तु बोलते समय उसे मुख पर रखते हैं। (ख) स्थानकवासी (15वीं शताब्दी)। में लम्बी मुखपट्टी रखते हैं। (ख) तारणपंथी (15वीं शताब्दी)। ये मूर्तिपूजक नहीं, शास्त्रपूजक हैं। मूर्तिपूजा नहीं करते। (ग) तेरहपंथी (18वीं शताब्दी)। ये चौड़ी मुखपट्टी रखते हैं। (ग-घ) तेरहपंथी और बीस पंथी (17वीं शताब्दी)। ये दोनों मूर्तिपूजक हैं मूर्ति पूजक नहीं हैं। तेरह पंथ में स्त्रियाँ भगवान् का अभिषेक नहीं कर सकतीं। इनके यहाँ पूजा में सचित्त पुष्प, नैवेद्य आदि नहीं चढ़ाया जाता। बीस पंथ में ये दोनों बातें स्वीकृत हैं तथा ये भगवान् को चन्दन और फूलों से अलंकृत भी करते हैं। (ङ) कहानपंथी या मुमुक्षुपन्थी या सोनगढी (20वीं शताब्दी)। ये निश्चयनय मार्ग का अनुसरण करते हैं तथा तेरहपंथी की तरह मूर्तिपूजक हैं। 30. गुर्वावलि-सुधर्मा, जम्बू, प्रभव, शय्यंभव, यशोभद्र शिष्य, 30. गुर्वावलि-गौतम, सुधर्मा, जम्बू, विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, (संभूतिविजय और भद्रबाहु), स्थूलभद्र (संभूतिविजय के गोवर्धन, भद्रबाहु। शिष्य)। इसी तरह अन्य अवान्तर भेद भी देखे जा सकते हैं। दार्शनिक सिद्धान्तों की व्याख्या में भी कहीं-कहीं थोड़ा अन्तर मिलता है (जैसे, प्रमाण-लक्षण, बन्ध-प्रक्रिया आदि)। 271