________________ प्रतिपादित है। एलोपेथी में भी कुछ परिस्थितियों में अन्न, जल-ग्रहण का निषेध किया जाता है। दिगम्बर जैन साधु तो नियम से बारह महीना एकाशना करते हैं और बीच-बीच में पूर्ण सात्विक उपवास भी करते हैं, इसीलिए बीमारियों से बचे रहते हैं। आज जैन समाज में कई ऐसे गृहस्थ भी हैं जो 1-1 मास का उपवास करते हैं। पर्युषण (दशलक्षण) पर्व पर तो बहुत से साधक 1 दिन, 5 दिन या 10 दिनों का लगातार उपवास रखते हैं। उपवास से हमारा कोलोस्ट्रोल कम होता है। इसलिए स्थूल शरीर वालों को कम खाने की हिदायत दी जाती है। नेचुरोपैथी में तो उपवास आदि क्रियाओं के माध्यम से ही शरीर के विकारों का शोधन करके व्यक्ति को निरोग किया जाता है। उपवास का सही फल तब नहीं मिलता है जब व्यक्ति पहले दिन ठंस-ठूस कर खा लेता है, उपवास के दिन सात्विक विचार नहीं रखता है, सांसारिक कार्यों को करता रहता है। वस्तुत: उपवास के दूसरे-तीसरे दिन भी विधिपूर्वक (संयम के साथ) आहारादि लेना है क्योंकि आगे भी नियमों का पालन आवश्यक है। उपवास यदि विधिवत् तथा अनुभवी गुरु की देखरेख में नहीं किया जायेगा तो लाभ के स्थान पर हानि भी सम्भव है क्योंकि उपवास के बाद गरिष्ठ और अतिभोजन से आंतें चिपक सकती हैं। किसे करना चाहिए और कब करना चाहिए यह भी जानना चाहिए। इस तरह सही उपवास वही है जिसमें जितेन्द्रिय व्यक्ति विषय भोगों तथा लोभादि कषायों से विरक्त) होता है। जितेन्द्रिय वीतरागी व्यक्ति भोजन करते हुए भी उपवासी कहलाता है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा भी है - उवसमणो अक्खाणं उववासो वण्णिदो समासेण। भुजंता वि य जिदिदिया होंति उपवासा।।439।। अर्थ- तीर्थङ्कर गणधरादि मुनीन्द्रों ने उपशमन (इन्द्रियों की आसक्ति पर विजय) को उपवास कहा है। इसीलिए जितेन्द्रिय मुनि भोजन करते हुए भी उपवासी कहलाते हैं। इसतरह उपवास में पाँचों इन्द्रियों को संयमित करके शान्त परिणामी होना आवश्यक है। श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं में अन्तर श्वेताम्बर और दिगम्बर जैनों में क्या अन्तर है इसे जानने से पूर्व इसके इतिहास-क्रम को जानना आवश्यक है। आज से 2544 वर्ष पूर्व चौबीसवें तीर्थकर भगवान् महावीर (जन्म ई. पूर्व 599) के निर्वाण (ई. पूर्व 527) के 162 वर्षों तक (चन्द्रगुप्त के शासनकाल तक) जैन सङ्घ में कोई मतभेद नहीं था। महावीर के बाद गौतम, सुधर्मा और जम्बू स्वामी ये तीनों गणधर केवली (अनुबद्ध केवलज्ञानी) हुए। जम्बू केवली के बाद श्वेताम्बर परम्परानुसार क्रमशः प्रभव, शय्यंभव, यशोभद्र, संभूतिविजय और भद्रबाहु ये पाँच चौदह पूर्वो के ज्ञाता हुए। संभूतिविजय और भद्रबाहु ये दोनों यशोभद्र के शिष्य थे। संभूतिविजय के शिष्य स्थूलभद्र थे। दिगम्बर-परम्परानुसार जम्बू स्वामी के बाद विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु ये पाँच श्रुतकेवली (आगमज्ञ) हुए। इस तरह भद्रबाहु को दोनों परम्पराओं ने मान्य किया। इसके बाद निमित्तज्ञानी भद्रबाहु चन्द्रगुप्त के शासनकाल में मगध में पड़ने वाले 12 वर्षीय अकाल को जानकर अपने सङ्घ के साथ दक्षिण में समुद्र तट की ओर चले गए। जो शेष साधु बचे वे स्थूलभद्र (निर्वाण, वी.नि. सं. 219) के नेतृत्व में वहीं रह गए। अकाल के दूर होने पर पाटलिपुत्र में स्थूलभद्र ने जैन साधुओं का एक सम्मेलन बुलाया जिसमें मौखिक परम्परा से चले आ रहे ग्यारह अङ्ग ग्रन्थों का सङ्कलन किया गया। बारहवाँ अङ्ग 'दृष्टिवाद' भद्रबाहु के अलावा किसी दूसरे को याद नहीं था। उनकी अनुपस्थिति से उसका सङ्कलन नहीं हो सका। इसके बाद आर्य स्कन्दिल (ई. सन् 300313) के नेतृत्व में मथुरा में दूसरा सम्मेलन हुआ। करीब इसी समय नागार्जुनसूरि के नेतृत्व में वलभी (सौराष्ट्र) में भी एक सम्मेलन हुआ। इसके बाद दोनों नेता आपस में नहीं मिल सके जिससे आगमों का अंशत: पाठभेद बना रह गया। इसके बाद देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के नेतृत्व में वलभी में एक तीसरा सम्मेलन (वी.नि. सं. 980-993) हुआ। इसमें जिसे जो याद था उसे पुस्तकारूढ़ कर दिया गया। इधर दिगम्बर परम्परानुसार महावीर निर्वाण के 683 वर्ष बाद (ई. सन् प्रथम शताब्दी मध्यकाल) गिरनार पर्वत की चन्द्र गुफा में तपस्या में लीन आचार्य धरसेन के पास (महाराष्ट्र में स्थित नगरी) आचार्य अर्हद्वलि ने पुष्पदन्त और 269