________________ बनकर धर्मोपदेश देते रहे। श्वेताम्बर उत्तराध्ययनसूत्र के केशी( गौतमीय संवाद से ज्ञात होता है कि उन्होंने सचेल (सन्तरोत्तर) तथा चातुर्याम (अहिंसा, सत्य, अचौर्य और अपरिग्रह) धर्म का देशकालानुरूप उपदेश दिया था जिसे महावीर ने देशकाल की परिस्थिति के अनुसार रत्नत्रय का ध्यान रखकर अचेल और पञ्चयाम में परिवर्तित किया था। दिगम्बर परम्परा में सचेल-अचेल का उल्लेख तो नहीं है परन्तु चातुर्याम की चर्चा अन्य रूप में मिलती है। यहाँ महावीर ने क्षेदोपस्थापना चारित्र स्थापित किया था। देशकाल की परिस्थितियाँ आदिनाथ से लेकर महावीरपर्यन्त तक की दोनों परम्पराओं में एक जैसी मिलती हैं। सन्दर्भ - 1. देखें- कल्पसूत्र, महापुराण, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, पसणाहचरियं (गुणभद्रगणि), पाश्वभ्युदय (जिनसेन), पार्श्वनाथचरित (वादिराज), पार्श्वनाथचरित (भट्टारक सकलकीर्ति), पार्श्वनाथपुराण (चन्द्रकीर्ति), पासणाहचरिउ (पद्मकीर्ति), पासचरिउ (रइधू), पासणाहचरिउ (श्रीधर, देवचन्द, पद्मनन्दि), पासपुराण (तेजपाल), पार्श्वपुराण (भूधरदास) आदि। 2. सकलकीर्ति, पार्श्वनाथचरित। उपवास जैन धर्म में उपवास का बड़ा महत्त्व बतलाया गया है। नेचुरोपैथी (प्राकृतिक-चिकित्सा पद्धति) में स्वास्थ्य की दृष्टि से भी इसका महत्त्व है। जैन बाह्य तपों के छह भेदों में से प्रथम चार भेद किसी न किसी रूप में भोजन त्याग से सम्बन्धित हैं। सामान्य रूप से लोग 'उपवास' का अर्थ 'दिन (दिन और रात्रि) भर के लिए अन्न-जल-फलादि 'त्याग' समझते हैं। इस प्रकार के उपवास को 'निर्जल उपवास' भी कहते हैं। जैनेतर परम्पराओं में कुछ लोग दिनभर (सूर्योदय से सूर्यास्त तक) तो कुछ नहीं लेते परन्तु रात्रिभर खाते-पीते रहते हैं। कुछ लोग अन्न (गेहूँ, चावल आदि) को त्याग करके फलाहारी (फल, आलु, कुटू का आटा आदि) करते रहते हैं। वस्तुतः उपवास का सही रूप है जिसमें चारों प्रकार के आहार (खाद्य, लेह्य, पेय ओर स्वाद्य) के त्याग के साथ पाँचों इन्द्रियों के विषय-भोगों का तथा चारों कषायों (क्रोध, मान, माया और लोभ) का भी त्याग हो। इसके अतिरिक्त सांसारिक प्रपञ्चों से दूर होकर शान्त भाव से स्वाध्याय-मनन या ईश्वर-प्रणिधान में चित्त को लगाया जाना भी आवश्यक है। इसके अभाव में 'लङ्घन' तो हो सकता है उपवास नहीं। अतिव्यस्तता के कारण भोजन न मिल पाने से भी उपवास नहीं होता है क्योंकि भोजन त्याग की भावना नहीं है। अतः कहा भी है - विषय कषायारम्भत्यागो यत्र विधीयते। उपवासः सो विज्ञेयः शेषं लङ्घनकं विदुः।। जैन धर्म में उपवास का बड़ा महत्त्व है। जैन सन्तों में भगवान् आदिनाथ (प्रथम तीर्थङ्कर) ने छ: मास का लगातार उपवास किया था तथा नियमानुसार आहार न मिलने पर पुनः छ: मास का उपवास किया था। संसार बन्धन के कारणभूत कर्मों की निर्जरा करने के लिए उपवास को यद्यपि बाह्य तपों में गिनाया गया है परन्तु वही उपवास जब अन्तर्ध्यान या धर्मध्यान के साथ जुड़ जाता है तो वह आभ्यन्तर तप कहलाने लगता है। जैन ग्रन्थों में उपवास को 'अनशन' (न+अशन अनशन) भी कहा गया है। साथ में यह भी कहा गया है कि इसे शक्ति के अनुसार करना चाहिए। ऐसा उपवास न कर सकने पर एकाशन (दिन में 1 बार भोजन लेना) या अवमौदर्य (भूख से कम खाना) या वृत्तिपरिसंख्यान (नियम विशेष की आकड़ी लेकर भोजन लेना) या रसपरित्याग (खट्टा-मीठा आदि कुछ रसों का त्याग करना, रूखासूखा उबला भोजन करना) करने का विधान है। इन सभी प्रकारों में भूख से कम खाना (कम से कम 1/4 भाग पेट का खाली रखना) आवश्यक है। 'ऊनोदर्य' उपवास से भी कठिन है। उपवास को 'प्रोषधोपवास भी कहा गया है जिसमें प्रथम दिन एक बार भोजन किया जाता है दूसरे दिन पूर्ण उपवास फिर तीसरे दिन एकासन / प्रोषध का अर्थ पर्व (अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व) भी किया जाता है। अर्थात् उन तिथियों में उपवास करना प्रोषधोपवास है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने इस उपवास के महत्त्व को समझा था तथा प्रयोग भी किया था। यदि उपवास को सात्विक विधि से किया जाता है तो शरीर की बहुत सी बीमारियों से बचा जा सकता है। आयुर्वेद में भी इसका महत्त्व 268