________________ हैं। वेदों में हमें वातरशना मुनि और केशी आदि के जो वर्णन मिलते हैं वे स्पष्टतः जैनमुनियों की ओर सङ्केत करते हैं, जैसे "ककर्दवे वभाभो युक्त आसीद्, अवावचीत् सारथिरस्य केशी। दुर्धयुक्तस्य दवतः सहानस, ऋच्छन्ति मा नि पदो मुद्गलानीम्।।" तात्पर्य यह है कि मुद्गल ऋषि की जो इन्द्रियाँ पराङ्मुखी थीं, वे उनके योगी ज्ञानी नेता केशी वृभष के धर्मोपदेश को सुनकर अन्तर्मुखी हो गईं। ऋग्वेद में जिन यतियों का उल्लेख आया है वे सम्भवतः जैनयति थे। प्राकृत-संस्कृत भाषाओं में विविध-विषयक विपुल साहित्य भाषा की दृष्टि से जैनागमों की भाषा जनभाषा प्राकृत थी। वैदिकों ने संस्कृत को 'दैवी वाक् मानकर उसी भाषा में रचना की। इसका एक अच्छा परिणाम यह रहा कि प्राचीनतम् वेदों की रक्षा भली प्रकार हुई परन्तु तत्कालीन विविध लोकभाषाओं का प्रतिनिधित्व नहीं बन सका। भगवान् महावीर और बुद्ध ने इस कमी को पूरा करते हुए लोक भाषा को अपने उपदेशों का माध्यम बनाया। भगवान् बुद्ध की भाषा को बाद में 'पालि' के नाम से व्यवस्थित किया गया। महावीर के उपदेशों को उनके गणधरों ने अर्धमागधी में उपनिबद्ध किया जो 18 भाषाओं का सम्मिश्रण था। कालान्तर में शौरसेनी भाषा में दिगम्बरों के परवर्ती आगमों की रचना हुई। पश्चात् संस्कृत तथा अन्य लोक भाषाओं में विपुल साहित्य लिखा गया। यह साहित्य हमें काव्य, दर्शन, वाद्य, सङ्गीत, आयुर्वेद, मन्त्र-तन्त्र, विधि-विधान, ज्योतिष, पूजा-पाठ, योग, खगोल, गणित, आदि विविध विषयों में उपलब्ध हैं। इस साहित्य के अतिरिक्त हमें लोक-कलाओं से सम्बन्धित स्थापत्यकला, स्तूप, गुफा, मंदिर, शिलालेख आदि से सम्बन्धित विपुल सामग्री प्राप्त होती है जिसके द्वारा जैनधर्म दर्शन के सिद्धान्तों को रूपायित किया गया है। अतः हम कह सकते हैं कि जैन धर्म केवल निवृत्ति-प्रधान नहीं है अपितु लौकिक जीवन से बहुत अधिक सम्बन्ध रखता है। इसी तरह इसमें समाजोपयोगी विपुल साहित्य तथा समन्वय की प्रवृत्ति उपलब्ध है। अतः जहाँ साधुचर्या को प्रमुखता से रूपायित किया गया है वहीं गृहस्थाचार को भी प्रमुखता दी है। गृहस्थाचार को तो उत्तराध्ययनसूत्र में घोराश्रम की संज्ञा दी गयी है क्योंकि इस पर चारों आश्रमों का उत्तरदायित्व होता है। मूलस्रोत के रूप में आगम ग्रन्थ, परवर्ती आगमाश्रित साहित्य तथा पुरातात्विक साक्ष्य हैं। तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ और उनके दस भव तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ ऐतिहासिक महापुरुष थे। विश्व के विघ्न समूह का नाश करने वाले, तीन लोक के स्वामी और अनन्त महिमा वाले श्रीपार्श्वनाथ को मस्तक झुकाकर नमस्कार हो।' नमः श्रीपार्श्वनाथाय विश्वविघ्नौघनाशिने। त्रिजगत्स्वामिने मूर्जा हनन्तमहिमात्मने।। तीर्थङ्कर महावीर से करीब 250-300 वर्ष पूर्व जैनधर्म के 23वें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ का जन्म उग्रवंशीय (इक्ष्वाकुवंशीय) राजा विश्वसेन (अश्वसेन हयसेन) के घर वामादेवी के गर्भ से वाराणसी में हुआ था। इनके जीवनचरित से सम्बन्धित सामग्री जैनागमों और प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी आदि के काव्यग्रन्थों में मिलती है। इन ग्रन्थों में चिन्तामणि,विघ्नहर पार्श्वनाथ के दस भवों का वर्णन मिलता है जिनका अवलोकन करने से एक ही बात प्रमुख रूप से समझने में आती है अपने प्रति वैमनस्य का तीव्र भाव रखने वाले के प्रति क्षमा, सहृदयता और मंगलभावना रखना चाहिए।' उनके जो प्रमुख दस भव बतलाये गए हैं, वे इस प्रकार हैं - पहला भव- अवसर्पिणी के चतुर्थ काल में पोदनपुर के राजा अरविन्द थे। उनके मन्त्री/पुरोहित का नाम था- विश्वभूति ब्राह्मण। ये ही पार्श्वनाथ के उस जन्म के पिता थे। उनकी माता का नाम था अनुन्धरी/अनुद्धया। उनके दो पुत्र थे- कमठ और मरुभूति / कमठ की पत्नी का नाम था- वरुणा और मरुभूति की पत्नी का नाम था वसुन्धरा / वसुन्धरा बहुत सुन्दर थी जिस पर क्रोधी और दुराचारी बड़े भाई कमठ की कामान्ध दृष्टि लगी रहती थी। एक बार मौका पाकर उसने कपटपूर्वक उसके साथ दुराचार किया। मरुभूति के कामविरक्त स्वभाव को देखकर दोनों में परस्पर सम्बन्ध होने लगा। इस बात को 266