________________ की सत्ता स्वीकार करता है परन्तु वह उन्हें सांख्य दर्शन की तरह दो मौलिक तत्त्व अथवा चित्-अचित् रूप विशिष्टाद्वैत न मानकर छह द्रव्यों की स्वतन्त्र सत्ता को स्वीकार करता है। साथ ही प्रत्येक द्रव्य को त्रिगुणात्मक (उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप) स्वीकार करता है। इसका परिणाम यह हुआ कि जैन धर्म वेदान्त की तरह न तो सत्ता को सर्वथा नित्य मानता है और न बौद्धों की तरह क्षणिक। अपितु जैन धर्म दोनों सिद्धान्तों का विधिवत् सयुक्तिक समन्वय स्थापित करता है। यहाँ यह स्पष्ट कर दें कि बौद्ध, वेदान्त आदि दर्शनों में भी जब उनके सिद्धान्तों में विरोध उत्पन्न होता है तो वे दो (परमार्थिक और संवृति सत्य) या तीन प्रकार की (पारमार्थिक, व्यावहारिक और प्रातिभासिक) सत्ता को स्वीकार करके अपने पक्ष में समागत विरोधों का समन्वय करते हैं। जैनदर्शन का स्याद्वाद सिद्धान्त भी नित्य अनित्य आदि विरोधों का समन्वय निश्चयनय-व्यवहारनय या द्रव्यार्थिकनय पर्यायार्थिकनय द्वारा करता है। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि जैन धर्म मात्र एकान्तरूप मिथ्यादृष्टियों का समन्वय करता है। अपितु विभिन्न दृष्टियों से देखने पर तत्त्व हमें विभिन्न रूपों में दृष्टिगोचर होता है। इस विविध दृष्टिगोचरता को उजागर करते हुए जैनधर्म में अनेकान्तवाद, स्याद्वाद, सप्तभंगीवाद तथा निक्षेपवाद आदि का प्रतिपादन किया है। जैनधर्म की कसौटी अपरिग्रह और अहिंसा संसार में सुख-शान्ति स्थापित हो इसके लिए जैन तीर्थङ्करों ने स्याद्वाद के अतिरिक्त अहिंसा और अपरिग्रह के सिद्धान्तों पर बल दिया है। अपरिग्रह का वास्तविक अर्थ है 'वीतरागता' और उसका परिणाम है 'अहिंसा'। जैनधर्म के समस्त आचार और विचारों की कसौटी अहिंसा और अपरिग्रह ही है। यदि किसी धार्मिक आचरण में मन, वचन, काय से अहिंसा और अपरिग्रह की परिपुष्टि नहीं होती है तो वह सदाचार नहीं है, मिथ्यात्व या असदाचार है। अहिंसा और अपरिग्रह से व्यवहार में सुख-शान्ति सम्भव है और परमार्थ से मुक्ति भी है। ये दोनों विषम-परिस्थितियों और विरोधों में दीपक का काम करते हैं। जगत् में व्याप्त कलह, तनाव आदि से निवृत्ति का उपाय एकमात्र अहिंसा और अपरिग्रह है। अन्य जितने भी नियम और उपनियम हैं वे सब इसी धुरी के आरे हैं। कर्मवाद और ईश्वर जैनधर्म का दूसरा सिद्धान्त 'कर्मवाद का है जो पूर्णत: मनोवैज्ञानिक है। इसके प्रभाव से शरीर-संरचना, ज्ञान, चारित्र, आयु, संपन्नता, सुख, दुःख, शक्ति आदि का निर्धारण होता है। मूलत: कर्म के आठ प्रकार हैं। ये अवान्तर भेदों से 148 हैं। ये कार्मण-पुद्गल आत्मा के राग-द्वेषादि परिणामों का निमित्त पाकर मूर्तिक होकर भी अमूर्त आत्मा से सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं। इस सम्बन्ध को कराने में लेश्यायें गोंद की तरह कार्य करती हैं। जैनधर्म में किसी अनादि, नित्य, सृष्टिकर्ता, संहारकर्ता और पालनकर्ता ईश्वर की आवश्यकता नहीं मानी गई है। तीर्थङ्करों को ही ईश्वर मानकर उनकी पूजा की जाती है। यद्यपि तीर्थकर कुछ नहीं करते परन्तु उनके गुणों के चिन्तन से हमारे विचारों में परिवर्तन एवं शुद्धता आती है और हमें अच्छा फल मिलता है। यहाँ प्रत्येक आत्मा में परमात्मा बनने की शक्ति को स्वीकार किया गया है। कर्म का आवरण उस शक्ति को प्रकट होने में आवरण का कार्य करता है। रत्नत्रय के प्रभाव से इस कर्म-आवरण के हटते ही आत्मा पूर्ण चैतन्यता, आनन्दावस्था, सर्वज्ञता, सर्वशक्तिमत्ता को प्राप्त कर लेता है। मूल स्रोत __ परम्परा से जैनधर्म अनादि माना जाता है। वर्तमान काल में आज से असंख्यात वर्ष पूर्व प्रथम तीर्थङ्कर आदिनाथ (ऋषभदेव) हुए थे जिन्होंने सर्वप्रथम असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प और विद्या (गायनादि) इन छह विद्याओं की शिक्षा दी थी तथा समाज को कार्यों के आधार पर तीन वर्गों में विभक्त किया था- क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। बाद में ऋषभदेव के पुत्र इस युग के प्रथम चक्रवर्ती भरत ने ब्राह्मण वर्ण की स्थापना की। ऋषभदेव के भरत और बाहुबली आदि 101 पुत्र तथा ब्राह्मी, सुन्दरी ये दो पुत्रियाँ थीं। ब्राह्मी को लिपि विद्या और सुन्दरी को अंक-विद्या सिखाई। ऋषभदेव का उल्लेख हमें वेदों में भी मिलता है। इनके बाद जैनधर्म में 23 तीर्थकर और हुए जिनमें 20वें तीर्थङ्कर मुनिसुव्रतनाथ के समय मर्यादापुरुषोत्तम राम हुए। नेमिनाथ के 84650 वर्ष बाद 23वें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ का जन्म वाराणसी में हुआ और उसके 248 वर्ष बाद ईसा पूर्व 599 में भगवान् महावीर का जन्म हुआ। यह अन्तिम 24वें तीर्थङ्कर का शासनकाल चल रहा है। भगवान् महावीर के निर्वाण के बाद 2544 वर्ष बीत चुके हैं। आदिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर इन चारों तीर्थङ्करों की ऐतिहासिकता सिद्ध हो चुकी है। तीर्थकर महावीर के शिष्य गौतम, सुधर्मा आदि गणधरों ने 12 आगमों की रचना की पश्चात् उपांग आदि आगम परवर्ती ऋषियों ने लिखे जो आज इस धर्म के मूल स्रोत 265