________________ में जैनधर्म की लोकप्रियता बनी रही। 16-17वीं शताब्दी में दक्षिण भारत और पूर्वी भारत में कहीं भी जैनधर्म का प्रभाव बढ़ता हुआ दृष्टिगोचर नहीं होता है क्योंकि अन्य धर्मों का प्रभाव यहाँ भी व्यापक रूप ले चुका था। जहाँ तक दक्षिण भारत में जैनधर्म के अस्तित्त्व का प्रश्न है, वहाँ विशेषकर कर्नाटक जैनधर्म का प्रमुख गढ़ रहा है। दक्षिण भारत से हमें विपुल शिलालेखी प्रमाणों के अतिरिक्त जैनधर्म के आधार स्तम्भरूप ग्रन्थकर्ता आचार्यों का अस्तित्त्व मिलता है। कुछ प्रमुख रचनाकार हैं - 1. कुन्दकुन्दाचार्य (ई0 प्रथम शताब्दी)- कुछ इन्हें पारवर्ती मानते हैं। ये दिगम्बर जैनियों के आज भी आदर्श हैं। इसीलिए उत्तरवर्ती ग्रन्थकारों ने अपने आपको कुन्दकुन्दान्वयी बतलाया है। तमिल, कन्नड तथा तेलगु भाषा-भाषी इन्हें अपने-अपने प्रदेश से सम्बद्ध करते हैं। इन्होंने जैन अध्यात्म को एक नई दिशा दी है जो सभी को मान्य है। शौरसेनी प्राकृत में रचित इनके प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं- पञ्चास्तिकाय, प्रवचनसार, समयसार, नियमसार और अष्टपाहुड। इन पर उत्तरवर्ती टीकाकारों ने संस्कृत, कन्नड, हिन्दी आदि में अनेक टीकाएँ लिखी हैं। अमृतचन्द्राचार्य तथा जयसेनाचार्य की संस्कृत टीकायें बहुत प्रसिद्ध हैं। 2. आचार्य उमास्वाति (उमास्वामी)- ये कुन्दकुन्दाचार्य के शिष्य तथा जैनियों में संस्कृत के आद्य सूत्रकार हैं। इनका बाइबिल तथा भगवद्गीता की तरह प्रसिद्ध ग्रन्थ है-तत्त्वार्थसूत्र या तत्त्वार्थाधिगमसूत्र। इसे मोक्षशास्त्र भी कहते हैं। इस पर दक्षिण के ही पूज्यपाद, अकलङ्कदेव तथा विद्यानन्दी ने संस्कृत में विशाल टीका-ग्रन्थ लिखे हैं। 3. समन्तभद्राचार्य- श्वेताम्बराचार्य हरिभद्रसूरि ने आपको 'वादिमुख्य' कहा है। कर्नाटक में इस महान् तार्किक की रचनाएँ हैं- आप्तमीमांसा, रत्नकरण्डश्रावकाचार, स्वयम्भूस्तोत्र, युक्त्यनुशासन, जिनस्तुति आदि। ये दिगम्बर जैन साहित्य के युग-प्रवर्तक के रूप में जाने जाते हैं। 4. पूज्यपाद (देवनन्दि या जिनेन्द्रबुद्धि, वि0 6-7 शताब्दी)- ये निष्णात वैयाकरण थे। इनकी रचनाएँ हैं- जैनेन्द्रव्याकरण, सर्वार्थसिद्धि (तत्त्वार्थसूत्र टीका), समाधितन्त्र, इष्टोपदेश तथा दशभक्ति। 5. अकलङ्कदेव (8वीं शताब्दी)- ये महान् तर्कशास्त्री थे। इन्हें जैनन्याय का पिता कहा जाता है। आपकी रचनाएँ हैंतत्त्वार्थराजवार्तिक या राजवार्तिक (तत्त्वार्थसूत्र की वृत्ति), अष्टशती (आप्तमीमांसा-टीका), लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय और प्रमाणसंग्रह। इनके ग्रन्थों पर विद्यानन्द, अनन्तवीर्य तथा प्रभाचन्द्र ने संस्कृत में टीकाएँ लिखी हैं। 6. विद्यानन्दाचार्य (ई0 810-816 के आसपास)- इनका अष्टसहस्री नामक न्यायग्रन्थ आप्तमीमांसा तथा उसकी टीका अष्टशतीभाष्य का विद्वत्तापूर्ण महाभाष्य है। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक (तत्त्वार्थसूत्र की टीका), आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा और विद्यानन्द महोदय भी आपके लिखे ग्रन्थ हैं। 7. प्रभाचन्द्राचार्य- ये धारा नगरी के राजा भोज के समकालीन थे। इनके दो महान् टीकाग्रन्थ हैं- न्यायकुमुदचन्द्र (अकलङ्क के लघीयस्त्रय की टीका), प्रमेयकमलमार्तण्ड (माणिक्यनन्दि के परीक्षामुखसूत्र की टीका)। 8. शाकटायन (पाल्यकीर्ति अमोघवर्ष प्रथम के समकालीन)- आपकी रचना है। अमोघवृत्ति सहित शाकटायन व्याकरण। 9-11. वीरसेन, जिनसेन एवं गुणभद्र (अमोघवर्ष प्रथम के राज्यकाल में)वीरसेन स्वामी ने भूतबलि-पुष्पदन्त रचित षटखण्डागमसूत्र पर धवला टीका तथा गुणधराचार्य रचित कसायपाहुड पर जयधवला टीका संस्कृत-प्राकृत मिश्रित भाषा में लिखीं। जयधवला टीका पूर्ण करने के पहले ही ये जब स्वर्गवासी हो गए तो इनके शिष्य जिनसेन स्वामी ने उसे पूरा किया। जिनसेनाचार्य ने कालिदास के मेघदूत को माध्यम बनाकर पार्वाभ्युदय नामक खण्डकाव्य भी रचा। त्रेषठशलाकापुरुषचरित लिखने की इच्छा से महापुराण को लिखना प्रारम्भ किया परन्तु शरीरान्त हो जाने से वे उसे पूरा नहीं कर सके जिसे उनके शिष्य गुणभद्र ने पूरा किया। 12. जिनसेन द्वितीय (ई0 783)- इन्होंने हरिवंशपुराण लिखा है। 13. सोमदेव (ई0 959)- इनकी दो रचनाएँ हैं- यशस्तिलक चम्पू (इसके अन्तिम भाग का नाम है उपासकाध्ययन) तथा नीति वाक्यामृतम् (कौटिल्य के अर्थशास्त्र की शैली में लिखित)। ये सभी ग्रन्थ प्राकृत भाषा अथवा संस्कृत में लिखे गए हैं। अन्य रचनाएँ- ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों से लेकर 12वीं शताब्दी तक दक्षिण के जैनों ने कन्नड भाषा में विपुल रचनाएँ की हैं। जैन कन्नड स्त्रियों ने भी कन्नड में साहित्य लिखकर महनीय योगदान किया है जिनमें 'कान्ति' नाम की 263