________________ है। इसे एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है, जैसे सफेद रोशनी यदि नीले रंग के काँच के गिलास पर पड़ती है तो वह नीली हो जाती है और यदि लाल गिलास पर पड़ती है तो वह लाल हो जाती है। रोशनी तो सफेद ही है, निमित्तविशेष (नीला/लाल) मिलने पर वह नीले अथवा लाल रंग की हो जाती है, वस्तुत: वह सफेद ही है। इसी तरह आत्मा की शक्ति तो स्वाभाविकी ही है परन्तु वह निमित्त-विशेष के मिलने पर भिन्न रूप प्रतीत होने लगती है। मुक्तावस्था में कोई कर्मादि-निमित्त नहीं रहते जिससे वह स्वाभाविक रूप में ही रहती है। (विशेष के लिए देखें पञ्चाध्यायी (राजमल्लकृत 2.61 से 93 तथा जैनेन्द्र सिद्धान्तकोष, भाग 3, पृष्ठ 557-559) दक्षिण भारत में जैनधर्म इतिहास से ज्ञात होता है कि सभी जैन तीर्थङ्करों के गर्भ, जन्म, तप (दीक्षा), ज्ञान और मोक्ष- ये पाँचों कल्याणक या तो पूर्वी भारत या उत्तरी भारत से सम्बन्धित रहे हैं, फिर कब जैनधर्म दक्षिण भारत में गया? वहाँ के प्रमुख प्राचीन ग्रन्थकार कौन हैं? इसके उत्तर में निम्न सन्दर्भ ध्यातव्य हैं - आपका यह कथन सही है कि चौबीसों तीर्थङ्करों की कर्मस्थली उत्तर भारत या पूर्वी भारत रहा है परन्तु ऐतिहासिक साक्ष्यों से यह भी सिद्ध है कि चौबीसवें तीर्थङ्कर महावीर के काल में उत्तर भारत में चन्द्रगुप्त मौर्य के समय बारह वर्षों के दुर्भिक्ष को देखते हुए अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु ने दक्षिण भारत की ओर 12 हजार साधुओं के साथ प्रस्थान किया था। चन्द्रगुप्त मौर्य भी उनके साथ गये थे। उन्होंने श्रवणबेलगोल पहुँचकर अपने साथ आए साधुओं को चोल, पाण्ड्य आदि प्रदेशों में जाने का आदेश दिया था तथा स्वयं वहाँ अपने शिष्य चन्द्रगुप्त के साथ चन्द्रगिरि पर्वत (कलवप्पु या कटव) पर ठहर गए थे। कुछ का कहना है कि वे बाद में नेपाल की ओर चले गए थे। वस्तुतः अन्त समय आने पर उन्होंने श्रवणबेलगोल में ही समाधिपूर्वक अपने शरीर का त्याग किया था। यह बात वहीं पर स्थित 6ठीं-7वीं शताब्दी के शिलालेखों से प्रमाणित होती है। इस तरह यह तो सुनिश्चित है कि भद्रबाहु के समय (ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में) जैनधर्म दक्षिण भारत में गया। हाथी-गुम्फा से प्राप्त खारवेल के शिलालेख (ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी) से ज्ञात होता है कि कलिंग जैनधर्म का प्रमुख केन्द्र था। सम्भावना है कि भगवान् महावीर ने कलिंग में विहार किया हो। इसी शिलालेख से यह भी सिद्ध होता है कि ईसा पूर्व 424 के आसपास सम्राट नन्द कलिंग को जीतकर वहाँ स्थित 'जिनप्रतिमा' को मगध ले गया था, जिस प्रतिमा को खारवेल ने मगध पर विजय प्राप्त करके पुनः उस 'जिन-प्रतिमा' को कलिंग में स्थापित किया था। खारवेल के शिलालेख से यह भी सिद्ध होता है कि खारवेल के पूर्व भी उदयगिरि पर्वत पर जैन मन्दिर थे। स्व० काशी प्रसाद जायसवाल ने लिखा है (जर्नल ऑफ बिहार उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी, जिल्द 3, पृ0 448) कि उड़ीसा में जैनधर्म का प्रवेश शिशु नागवंशी राजा नन्दवर्धन के समय में ही हो गया था। जैनधर्म कलिंग से आन्ध्र में, आन्ध्र से तमिल में तथा तमिल से श्री लङ्का में पहुँचा। वहाँ के अनेक शासकों तथा राजवंशों का जैनधर्म को संरक्षण मिला। आशा तो है कि इसके पूर्व भी जैनधर्म वहाँ रहा होगा अथवा यह भी सम्भव है कि उनके साथ गए श्रावकों ने ही व्यवस्था की हो। जो कुछ भी हो, आज दक्षिण भारत में अनेक शिलालेख तथा कलापूर्ण विशाल जैन मन्दिर विद्यमान हैं। पं0 आशाधर जी (वि0 सं0 1300) के 'अनगारधर्मामृत' में जिन मिथ्यादृष्टियों का उल्लेख आया है उनमें द्रव्यलिङ्गी दिगम्बर मठाधीश मुनियों को भी गिनाया है, जिससे ज्ञात होता है कि 13वीं शताब्दी में दक्षिण भारत में मठवासी भट्टारक दिगम्बर मुनियों का वर्चस्व हो गया था। यहाँ भट्टारकों ने परिस्थिति विशेष के कारण (जैन धर्म के रक्षार्थ) वस्त्रादि ग्रहण किए थे। परिणामस्वरूप जैनागमों का संरक्षण हो सका। ये वस्तुत: मुनि नहीं थ अपितु ब्रह्मचारी होकर भी पिच्छीकमण्डलु रखते थे और मठों में रहते थे, प्रजा का भी संरक्षण करते थे। अत: इन्हें मिथ्यादृष्टि मुनि कहना अनुचित है। मैंने स्वयं उनसे इस विषय में चर्चा की है। उस समय प्रतिद्वन्द्वी सम्प्रदायों के साथ दिन-रात चलने वाले सङ्घर्ष के परिणामस्वरूप जैनधर्म में अनेक विकृतियाँ पनप गई थीं। दसवीं शताब्दी के अन्त में राष्ट्रकूट तथा गंग राजवंशों के पतन के बाद जैनधर्म अपने आप को सम्हाल नहीं सका। तमिल के नयनारों की तरह ही बारहवीं शताब्दी के मध्य में वीर शैव धर्मावलम्बी वसव ने कर्नाटक में भी जैनधर्म के पतन में अहम भूमिका निभाई। फिर भी पन्द्रहवीं शताब्दी तक कर्नाटक 262