________________ (2) अरहन्त (अर्हन्त)- यह पूज्यार्थक अर्ह' धातु से बना है। अतः इसका अर्थ है 'पूज्य'। (3) 'अरूहंताणं' - संसार रूपी वृक्ष के बीज को दग्ध करने वाला। 'अरुह' अर्थात् जो बीज पुनः अंकुरित न हो। (4) 'नमो' श्वेताम्बर परम्परा में 'नमो' का प्रयोग मिलता है। प्राकृत के नियमानुसार 'न' को 'ण' होता है परन्तु हेमचन्द्राचार्य ने पद के आदि के 'न' के प्रयोग को उचित बतलाया है। (5) 'आयरियाणं या आइरीयाणं' दोनों प्रयोग मिलते हैं। प्राकृत नियमानुसार आयरियाणं में 'य' श्रुति हुई है। (6) 'सव्व' के स्थान पर सब्ब' भी प्रयुक्त होता है। इस मन्त्र का सभी को प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल अवश्य स्मरण (जप) करना चाहिए। यह नमस्कार मन्त्र अहंकार का विसर्जन करता है। आत्मशुद्धि करता है। इस मन्त्र के कई नाम हैं-पञ्च नमस्कार मन्त्र, महामन्त्र, अपराजित मन्त्र, मूलमन्त्र, अनादिनिधन मन्त्र, मंगल मन्त्र, परमेष्ठी मन्त्र आदि। इस मन्त्र में किसी देवता को नमस्कार नहीं किया गया है, अपितु जिन्होंने तप-ध्यान के द्वारा अपनी आत्मा का कल्याण किया है तथा जो आत्म-कल्याण के मार्ग में स्थित हैं तथा भविष्य में मुक्ति प्राप्त करने वाले हैं, ऐसे महापुरुषों को नमस्कार किया गया है। इस मन्त्र के द्वारा किसी प्रकार की याचना नहीं की गई है फिर भी अपने आप कार्यसिद्धि होती है, जैसे अंजन चोर को आकाश-गामिनी विद्या की प्राप्ति, मरणासन्न कुत्ते को राजकुमार जीवन्धर द्वारा यह मन्त्र सुनाने पर सुदर्शन नामक यक्षेन्द्र देवत्व की प्राप्ति। निन्दा करने पर सुभौम चक्रवर्ती को सातवें नरक की प्राप्ति। इस महामन्त्र का संक्षिप्त रूप'ॐ' है। ओम्' (अ + अ + आ + उ + म्) में पाँचों परमेष्ठियों के आदि अक्षर समाहित हैं, जैसे- अ = अरहन्त, अ = अशरीरी, सिद्ध, आ = आचार्य, उ = उपाध्याय और म् = मुनि (साधु)। कहा है अरहंता असरीरा आयरिया तह उवज्झाया मुणिणो। पढमक्खर-णिप्पण्णो ओंकारो पञ्च परमेट्टी / / इसका दूसरा संक्षिप्त रूप है- अ-सि-आ-उ-सा नमः / यहाँ प्रश्न कर सकते हैं कि सिद्धों को पहले नमस्कार करना चाहिए क्योंकि उन्होंने आठों कों को निर्जीर्ण कर दिया है जबकि अर्हन्तों ने अभी सभी अघातिया कर्मों को निर्जीर्ण नहीं किया है। इसका उत्तर है कि अर्हन्त ही हमें संसारसागर से पार उतरने का समवसरण में दिव्य उपदेश देते हैं। अतः उन्हें प्रथम नमस्कार किया है। वे ही हमारे मार्ग दर्शक हैं। सिद्ध अशरीरी हैं उनसे साक्षात् उपदेश नहीं मिलता है। वस्तुत: 'सिद्ध' और 'अर्हन्त' ये परमात्मा की दो अवस्थायें हैंसशरीरी-अवस्था (जीवन्मुक्त या केवलज्ञानी) और अशरीरी-अवस्था (विदेहमुक्त या सिद्ध)। आत्मा की वैभाविकी शक्ति आत्मा में स्वाभाविकी शक्ति के साथ वैभाविकी शक्ति (रागादिरूप अशुद्ध परिणति) भी मानी जाती है यदि वह मुक्तावस्था में भी रहेगी तब कोई भी जीव शुद्ध-बुद्ध-मुक्त नहीं हो सकेगा। जबकि मुक्तावस्था में उसका सर्वथा अभाव माना जाता है यह कथन कैसे सम्भव है? क्योंकि किसी भी शक्ति (गुण) का कभी भी सर्वथा अभाव नहीं हो सकता। ऐसी शंका होने पर विचारणीय है कि प्रत्येक द्रव्य सत्-स्वभावी तथा परिणमनशील है। आत्मा में दो प्रकार का परिणमन करने की शक्ति है- (1) स्वाभाविक परिणमन (स्वाभाविकी क्रिया) और (2) वैभाविक परिणमन (वैभाविकी, क्रिया)। ये दोनों प्रकार के परिणमन या क्रियायें, सत् की पारिणामिक शक्तियाँ हैं; ये न तो दो स्वतन्त्र शक्तियाँ हैं और न एक ही शक्ति का द्विधा-भाव। वस्तुतः शक्ति तो एक स्वाभाविकी ही है जो निमित्त विशेष के कारण विभाव रूप परिणत होने की योग्यता रखती है। के हैं- सामान्य और विशेष। 'काल' सभी द्रव्यों के परिणमन में सामान्य निमित्त है। रागादि रूप भावकर्म और ज्ञानावरण आदि द्रव्य-कर्म आत्मा के विभाव रूप परिणमन में विशेष निमित्त हैं। इन कर्मादि विशेष निमित्तों के कारण आत्मा में विभाव रूप परिणति देखी जाती है। यह वैभाविक परिणमन-विशेष निमित्त-सापेक्ष होकर भी वस्तु (आत्मा) की उस काल में प्रकट होने वाली योग्यतानुसार ही होता है। संसारावस्था में कर्म-विशेष निमित्त से अमूर्त आत्मा भी कर्मों से बद्ध होकर मूर्त सा हो जाता है, परन्तु मुक्तावस्था में कर्म-विशेष निमित्तों का अभाव होने से उसमें वैभाविक परिणति नहीं होती 261