________________ 5. योगि भक्ति-महाव्रतादि गुणों के धारक-वीतरागी ध्यानस्थ मुनियों की भक्ति। 6. आचार्य भक्ति-आचार्य परमेष्ठियों की भक्ति। 7. निर्वाण भक्ति-जहाँ से तीर्थङ्करादियों ने निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त किया है उन निर्वाण-भूमियों की भक्ति के माध्यम से मुक्तात्माओं की भक्ति। 8. नन्दीश्वर भक्ति-नन्दीश्वर द्वीप में स्थित अकृत्रिम जिन प्रतिमाओं की भक्ति / नन्दीश्वर द्वीप तक मनुष्य नहीं जा सकते, वहाँ देवगण सपरिवार पूजनादि करते हैं। हम यहाँ रहकर उनकी भक्ति करते हैं। 9. शान्ति भक्ति 'पाँच कल्याणकों से युक्त, चौंतीस अतिशयादि से युक्त ऋषभादि तीर्थङ्करों की भक्ति। 10. समाधि भक्ति-रत्नत्रय-प्ररूपक ध्यानावस्था में विद्यमान तथा परमात्मा के ध्यान रूप समाधि की भक्ति। यह सिद्ध होने के पूर्व समाधि रूप साधन की भक्ति है। 11. पञ्चगुरु भक्ति (पञ्च परमेष्ठी भक्ति)-पाँचो परमेष्ठियों (अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु) के गुणों के सङ्कीर्तन रूप भक्ति। आचार्य आदि मोक्षमार्गारूढ़ होने से उन्हें भी भक्ति योग्य कहा गया है। इन पाँचों को हितोपदेष्टा गुरु कहा जाता है। 12. चैत्य भक्ति-मन्दिरों (चैत्यालयों) में विराजमान अर्हन्त आदि के प्रतिबिम्बों (प्रतिमाओं या मूर्तियों) की भक्ति। इनमें से नन्दीश्वर भक्ति, शान्ति भक्ति, चैत्य भक्ति और समाधि भक्ति ये चारों भक्तियाँ गद्य (अञ्चलिका रूप) में हैं शेष 8 भक्तियाँ पद्य (प्राकृत पद्य) में तथा 'इच्छामि भंते' रूप संक्षिप्त गद्य में हैं। चैत्य भक्ति और समाधि भक्ति को छोड़कर शेष 10 भक्तियाँ प्रसिद्ध हैं। ये मुनियों के द्वारा नित्य पठनीय हैं। सिद्ध भक्ति की संस्कृत टीका में प्रभाचन्द्राचार्य ने लिखा है कि समस्त संस्कृत भक्तियाँ पूज्यपाद स्वामी कृत हैं तथा प्राकृत भक्तियाँ आचार्य कुन्दकुन्द कृत हैं। पद्मनन्दिकृत प्राकृत भक्तियाँ तथा श्रुतसागर कृत संस्कृत भक्तियाँ भी मिलती हैं। नवधा भक्ति : जैन श्रावक के घर जब दिगम्बर जैन साधु आहारार्थ द्वार पर आता है तब श्रावक उसे नवधा भक्तिपूर्वक गृह-प्रवेश कराता है पश्चात् दिगम्बर साधु विधिपूर्वक आहार ग्रहण करता है। नवधा भक्ति इस प्रकार है - 1. पडिगहणं कायव्वं णमोत्थु' (नमोऽस्तु), 'अत्र अत्र', 'तिष्ठ तिष्ठ' कहकर साधु को रोकना। 2. निर्दोष तथा उच्च आसन पर बैठाना। 3. चरण-प्रक्षालन करना। 4. पवित्र चरणोदक को मस्तक पर लगाना। 5. अष्ट द्रव्य से पूजा करना। 6. चरणों में पुष्पाञ्जलि समर्पित कर वन्दना करना। 7. से 9. शुद्ध भाव से मन, वचन, काय की शुद्धि बोलकर तथा आहार-शुद्धिबोलकर आहार ग्रहण की प्रार्थना करना। जिनपूजा विचार-प्रतिदिन 'जिन-पूजा' को दिगम्बर- श्वेताम्बर (मूर्ति पूजक) दोनों परम्पराओं में आवश्यक कर्तव्य बतलाया गया है। तदाकार अथवा निराकार वस्तु में पूजा कर सकते हैं। वस्तुतः शरीर में स्थित आत्मा ही देव है। देव तो भावों में हैं, मूर्ति में नहीं। ऐसा होने पर भी तदाकार मूर्ति की पूजा का विधान है क्योंकि अर्हत् प्रतिबिम्ब को देखकर उनके गुणों का साक्षात् स्मरण हो जाता है और तद्वत् भाव होते हैं, जैसे पुत्र, शत्रु, मित्र आदि के चित्रों को देखकर तदाकार भाव होते हैं। द्रव्य चढ़ाने से मन की स्थिरता बनी रहती है, बिना द्रव्य चढ़ाये भी पूजा की जा सकती है जो विशेषकर मुनि (अपरिग्रही साधु) करते हैं। इसीलिए पूजा दो प्रकार की है- द्रव्य पूजा और भाव पूजा (वचनों से गुणों का स्तवन)। पूजा के पूर्व अभिषेक का भी विधान है। कुछ केवल शुद्ध जल से अभिषेक करते हैं और कुछ पञ्चामृत से। कुछ अचित्त द्रव्य से पूजा करते हैं तथा कुछ सचित्त-अचित्त दोनों से। भावना है स्व-स्वरूपोपलब्धि या परमात्म पदप्राप्ति। पूजा सम्बन्धी विधि विधान भी हैं। आचार्य पूज्यपाद (ई.5212), अभयनन्दि (ई.10-11 श.) इन्द्रनन्दि नयनन्दि, श्रुतसागर, मल्लिषेण आदि द्वारा लिखित विपुल पुरातन पूजा-भक्ति साहित्य भी है। जैन जो सामग्री (द्रव्य, सोना, रुपया आदि) भगवान् जिनेन्द्र के चरणों में समर्पित करते हैं वह उन्हें निर्माल्य (अग्राह्य) होती है। क्योंकि वह उन्होंने भगवान् को समर्पित कर दी है, अब उसका उपयोग उनका सेवक माली आदि कर सकता है, वो नहीं। या धर्म कार्य (मन्दिर निर्माण आदि) में उसका उपयोग हो सकता है। हिन्दुओं की तरह 'प्रसाद' 170