________________ नहीं जैसा कि ऊपर ईश्वर का स्वरूप बतलाया गया है। मूलतः ईश्वरवादी वेदान्त और योगदर्शन का ईश्वर भी वैसा नहीं है जैसा कि न्याय दर्शन का ईश्वर है। वेदान्त दर्शन में नित्य, अनादि, अनन्त तथा शुद्ध सच्चिदानन्द स्वरूप एक मात्र निर्गुण ब्रह्म तत्त्व को स्वीकार किया गया है। इसके अतिरिक्त समस्त जगत् इसी का विवर्त (भ्रम) है। अर्थात् समस्त जगत में एकमात्र ब्रह्म तत्त्व है, वह जब मायोपाधि से युक्त होकर सगुण रूप को धारण करता है तब वह न्याय दर्शन के ईश्वर के तुल्य हो जाता है। न्यायदर्शन को ईश्वर तो मात्र जगत् को निमित्त कारण है जबकि वेदान्त का सगुण ब्रह्मरूप ईश्वर जगत् का निमित्त और उपादान दोनों कारण है। न्याय की दृष्टि से जगत् वास्तविक है और वेदान्त की दृष्टि से जगत् भ्रमात्मक या मायात्मक है। इस तरह वेदान्त की दृष्टि से परम ब्रह्म ही सत्य है और उस परम ब्रह्म का माया युक्त रूप ईश्वर है वह परम सत्य नहीं योगदर्शन सांख्य दर्शन का पूरक दर्शन है। इसमें प्रकृति (अचेतन) और पुरुष (चेतन) ये दो मुख्य तत्त्व हैं। पुरुष (चेतन आत्मा) संख्या में अनेक हैं। एक पुरुष विशेष को ईश्वर कहा है जो अनादि मुक्त. क्लेशादि (शुभाशुभ कर्मों) से सर्वथा मुक्त, विपाक (कर्मों के फलोपभोग) तथा आशय (नाना प्रकार के संस्कार) से सर्वथा अस्पृष्ट पुरुष विशेष है। यह प्राणियों पर अनुग्रहादि करता है। इस तरह इस दर्शन का ईश्वर एक पुरुषविशेष है और वह सत्यरूप है। सांख्य दर्शन में प्रकृति और पुरुष ये दो ही तत्त्व हैं। प्रकृति और पुरुष का संयोग होने पर प्रकृति में क्षोभ पैदा होता है और महदादि क्रम से प्रकृति से इस जगत् की सृष्टि होती है। इसमें ईश्वर (पुरुष विशेष) की कोई आवश्यकता नहीं है। सृष्टि स्वाभाविक प्रक्रिया से होती है। जैसे वत्सविवृद्धि के लिए दूध की प्रवृत्ति स्वतः होती है। जैन दर्शन में 6 द्रव्यों की सत्ता मानी गई है-पुद्गल (रूपी अचेतन), जीव (चेतन-आत्मा), धर्म (गति हेतु) अधर्म (स्थिति-हेतु), आकाश (अवगाह-हेतु) और काल (वर्तना या परिवर्तन हेतु) / इनसे ही स्वाभाविक रूप से सृष्टि होती है। इसका सञ्चालक कोई ईश्वर नहीं है। इतना अवश्य है कि जीवन्मुक्तों और विदेहमुक्तों को ईश्वर (परमात्मा) शब्द से सम्बोधित किया गया है। परन्तु वे वीतराग होने से अनुग्रहादि कुछ भी कार्य नहीं करते। वे केवल आदर्श पुरुष मात्र हैं। ईश्वरवाद के सन्दर्भ में सांख्य दर्शन और जैन दर्शन दोनों ही मूलत: अनीश्वरवादी दर्शन हैं परन्तु परवर्ती काल में सांख्य दर्शन ईश्वरवादी दर्शन बन गया। सांख्य दर्शन को ईश्वरवादी दर्शन बनाने में सर्वप्रमुख भूमिका आचार्य विज्ञानभिक्षु की है सांख्यदर्शन के उपलब्ध सर्वप्राचीन ग्रन्थ सांख्यकारिका तथा उसकी सभी प्राचीन टीकाओं में कहीं भी ईश्वर के अस्तित्त्व को स्वीकार नहीं किया गया है। गौडपादभाष्य आदि टीकाओं में सृष्टिकर्ता ईश्वर के अस्तित्व का खण्डन अवश्य मिलता है। श्री बालगंगाधर तिलक का विचार है कि ईश्वरकृष्ण की 61वीं कारिका लुप्त हो गई है जिसकी रचना उन्होंने गौडपादभाष्य के आधार पर करते हुए अनीश्वरवाद की स्थापना की है। सांख्यकारिका की प्रसिद्ध टीका युक्तिदीपिका में स्पष्ट शब्दों में प्रकृति की प्रवृत्ति में ईश्वर-प्रेरणा का निषेध किया गया है। गौडपादकार भी ईश्वर को सृष्टि का कारण मानने के मत को अस्वीकार करते हुए कहते हैं कि ईश्वर जब निर्गुण है तो उससे सत्त्व आदि गुणों वाली (सगुण) प्रजा की सृष्टि कैसे हो सकती है। वाचस्पति मिश्र का कहना है कि जगत् की सृष्टि या तो स्वार्थवश सम्भव है या करुणावश। ईश्वर जब आप्तकाम है तो उसके स्वार्थ का कोई प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। करुणावश भी सृष्टि सम्भव नहीं है क्योंकि सृष्टि से पूर्व शरीर-इन्द्रियादि के अभाव होने से दु:खाभाव होगा फिर ईश्वर की करुणा कैसी ? करुणाभाव तो दूसरों के दुःखों के निवारण की इच्छा है। सृष्टि के पश्चात् प्राणियों को दुःखी देखकर करुणा मानने पर अन्योन्याश्रय दोष होगा। किञ्च, करुणा से सृष्टि मानने पर उसे सभी को सुखी ही उत्पन्न करना चाहिए, दुःखी नहीं। अत: अचेतन प्रकृति की स्वतः प्रवृत्ति मानना ही उचित है। वृत्तिकार अनिरुद्ध ने ईश्वरकर्तृत्व का खण्डन करते हुए कहा है कि ईश्वर की सिद्धि करने वाला कोई प्रमाण नहीं है। ईश्वर के जगत्कर्तृत्व में निमित्तकारणता का खण्डन करते हुए कहते हैं कि ईश्वर के न तो सशरीरी होने पर और न अशरीरी होने पर सृष्टि सम्भव है।" यदि ईश्वर स्वतन्त्र होकर भी जीवों के कर्मानुसार उनकी सृष्टि करता है तो उसकी आवश्यकता ही क्या है ? क्योंकि वह कार्य कर्म से ही हो जायेगा। किञ्च, राग के अभाव में वह सृष्टि कर ही नहीं सकता इसी तरह अन्य तर्कों के द्वारा अनिरुद्ध सांख्य सूत्रों की वृत्ति करते हुए सांख्य को अनीश्वरवादी सिद्ध करते हैं। जैन दर्शन में भी कुछ इसी तरह की युक्तियों के द्वारा जगत्कर्ता ईश्वर का खण्डन किया गया है। 189