________________ णासंति चरणकरणं बाहरिचरणालसा केई / / अन्त में इस ग्रन्थ का उपसंहार करते हुए ग्रन्थकार लिखते हैं-'प्रवचन' (जिनवाणी) की भक्ति से प्रेरित होकर मैंने (मोक्ष) मार्ग की प्रभावना के लिए प्रवचन का सारभूत यह पञ्चास्तिकायसंग्रह-सूत्र (शास्त्र) कहा है। इससे स्पष्ट है कि जो व्यवहाररूप अहंदादि की भक्ति को मात्र स्वर्ग का साधन बतलाये तथा उसे मोक्षप्राप्ति में प्रतिबन्धक बतलाकर तुरन्त उपसंहार करते हुए 'जिनमार्ग-प्रभावनार्थ', 'प्रवचन-भक्ति-प्रेरित' जैसे वाक्यों का कथन क्यों करेगा ? अर्हमुक्ति से अकाम निर्जरा भी होती है। अत: नमस्कार वाक्यों में महावीर को 'अपुनर्भव का कारण' कहना व्यवहार नयाश्रित कथन है क्योंकि निश्चय से कोई किसी का कारण नहीं है। इत्यादि कथनों से सिद्ध होता है कि व्यवहार रूप बाह्य क्रियायें भी निर्वाणप्राप्ति के लिए आवश्यक हैं परन्तु वहीं तक सीमित न रह जायें, अत: उन तपस्वियों के प्रतिबोधनार्थ निश्चय का कथन करके आचार्य ने दोनों नयों का सम्यक् समन्वय करना चाहा है। किसी एक नय को हेय और दूसरे को उपोदय कहना स्याद्वादसिद्धान्त का और आचार्य कुन्दकुन्द का उपहास है। अपेक्षा भेद से अपने स्थान पर दोनों नय सम्यक् हैं। परमदशा की प्राप्ति तो नयोपरि अवस्था है। 'दर्शनविशुद्धि' आदि भावनाएँ जो तीर्थङ्कर प्रकृतिबन्ध का कारण मानी जाती हैं वे व्यवहार से बन्ध की कारण भले ही हैं परन्तु तीर्थङ्कर प्रतिबन्ध नियम से निर्वाणप्राप्ति का हेतु माना गया है। इस तरह व्यवहार और निश्चय का सम्यक् समन्वय ही निर्वाण का हेतु है, न केवल व्यवहार और न केवल निश्चयनय-यही ग्रन्थकार का अभिमत है। 2. समयसार यहाँ 'जीव' पदार्थ को 'समय' शब्द से कहा गया है। जब वह अपने शुद्ध-स्वभाव में स्थित होता है तब उसे 'स्वसमय' कहते हैं और जब परस्वभाव (रागद्वेषादि के कारण पुद्गल कर्मप्रदेश) में स्थित होता है तब उसे 'परसमय' कहते हैं। इस ग्रन्थ में जीवात्मा के इस स्वसमय और परसमय का ही विवेचन किया गया है। __ ग्रन्थारम्भ में ग्रन्थकार ध्रुव, अचल और अनुपम गति को प्राप्त सभी सिद्धों को नमस्कार करके श्रुतकेवलियों द्वारा कथित इस समयप्राभृत को कहने का सङ्कल्प करते हैं, इसके बाद एकत्वविभक्त (सभी पर-पदार्थों से भिन्न, पुद्गलकर्मबन्ध से रहित) आत्मा की कथा की दुर्लभता का कथन करते हुए उसके कथन करने की प्रतिज्ञा करते हैं - 'मैं अपनी शक्ति के अनुसार उस एकत्वविभक्त आत्मा का यदि प्रमाणरूप से दर्शन करा सकूँ तो प्रमाण मानना अन्यथा (ठीक से न समझा सकने पर या ठीक न समझाने पर) छलरूप ग्रहण न करना। कितना स्पष्ट कथन है। इससे सिद्ध है कि ग्रन्थकार का मुख्य उद्देश्य इस ग्रन्थ में आत्मा के दुर्बोध शुद्धस्वरूप का ज्ञान कराना है। अत: वे व्यवहार पक्ष को गौण करके निश्चय का कथन मुख्यता से करते हैं। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि व्यवहार मिथ्या है। इस सन्दर्भ में उनका यह निवेदन ध्यान देने योग्य है-'ठीक न जान सकने पर छल रूप ग्रहण न करना।' इस तरह वे निश्चय ही व्यवहार और निश्चयनय से समन्वित आत्मा को दर्शाना चाहते हैं अन्यथा वेदान्तदर्शन के साथ जैनदर्शन का भेद करना कठिन हो जायेगा। इसलिए ग्रन्थकार व्यवहारनय से कहते हैं कि ज्ञानी जीव के चारित्र, दर्शन और ज्ञान हैं परन्तु (निश्चय नय से) न चारित्र है, न दर्शन है और न ज्ञान है, अपितु वह शुद्ध ज्ञायकरूप है। यहीं ग्रन्थकार व्यवहारनय की अनुपयोगिता की आशङ्का का समाधान करते हुए कहते हैं कि जैसे अनार्य (साधारण) जन को अनार्य भाषा के बिना समझाना (वस्तुस्वरूप का ज्ञान कराना) कठिन है उसी प्रकार व्यवहारनय के 'बिना परमार्थ का उपदेश देना अशक्य है। 4 इस तरह यहाँ स्पष्ट रूप से अनुत्कृष्ट दशा वाले जीवों को परमार्थ तक पहुँचाने में व्यवहारनय को अनिवार्य साधन के रूप में स्वीकार किया गया है। इसके आगे व्यवहार को 'अभूतार्थ' तथा शुद्धनय (निश्चयनय) को 'भूतार्थ' कहते हुए भूतार्थनयाश्रयी को सम्यग्दृष्टि कहा है। यहाँ ग्रन्थकार भ्रम-निवारणार्थ पुनः कहते हैं-जो परम भाव (उत्कृष्ट दशा) में स्थित हैं उनके द्वारा शुद्ध तत्त्व को उपदेश देने वाला शुद्धनय जानने योग्य है और जो अपरमभाव (अनुत्कृष्ट दशा) में स्थित हैं वे व्यवहारनय से उपदेश करने के योग्य हैं। इस तरह व्यवहारनय को त्याज्य न बतलाते हुए अपेक्षा भेद से ग्रन्थकार दोनों नयों की प्रयोजनवत्ता को सिद्ध करते हैं। अधिकांश जीव अपरमभाव में ही स्थित है। यही टीकाकार अमृतचन्द्राचार्य 'उक्तं च' कहकर एक गाथा उद्धत करते हैं जइ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहार-णिच्छए मुयह। एक्केण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण पुण तच्वं / / " अर्थात्-यदि तुम जिनमत की प्रवर्तना करना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय दोनों नयों को मत छोड़ो क्योंकि 236