________________ दिगम्बर परम्परा में वृक्षमूल के समान साधु के 28 मूलगुण बतलाए हैं जिनके बिना समस्त बाह्य योग (क्रियायें) किसी काम के नहीं हैं -5 महाव्रत (अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह), 5 समिति (ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण तथा उच्चार-प्रस्रवण या प्रतिष्ठापनिका), 5 इन्द्रियनिग्रह (स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण), 6 आवश्यक या नित्यकर्म (सामायिक, चतुर्विंशति-स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान तथा कायोत्सर्ग) तथा 7 शेष गुण (लोच या केशलोच, आचेलक्य या नग्नत्व, अस्नान, भूमिशयन, अदन्ताधावन, स्थित-भोजन या खड़े-खड़े अञ्जलि में आहार लेना तथा एकभक्त या एक बार दिन में भोजन)। लोचादि शेष 7 गुण दिगम्बर साधु के बाह्य विशेष चिह्न हैं। इनके अतिरिक्त अहिंसा महाव्रत की रक्षार्थ मयूरपिच्छ और शौच आदि क्रिया के निमित्त प्रासुक जलयुक्त कमण्डलु रखना। केशलोच आदि से शरीर को कष्ट-सहिष्णु तथा जितेन्द्रिय बनाया जाता है। महाव्रतों की रक्षार्थ आहारचर्या, वसतिका आदि के सम्बन्ध में शास्त्रानुकूल आचरण सबसे अधिक आवश्यक है। इन सब नियमोपनियमों का उद्देश्य है महाव्रतों में अतिचार (दोष) न लगने देना। एकल-विहार, ज्योतिष-मन्त्र-तन्त्र आदि का प्रयोग, शुभोपयोगी लौकिक-क्रियाओं का अधिक प्रयोग, मठों में स्थायी निवास आदि सर्वथा त्याज्य हैं। इस तरह शास्त्रों में साधु की चर्या बहुत कठिन बतलायी गई है जो उचित भी है क्योंकि साधु का उद्देश्य 'आत्मकल्याण' है तथा गृहस्थ उनकी आहारादि की व्यवथा करके उनके कार्य में सहयोग करता है। जहाँ भौतिकता का साम्राज्य फैला हुआ हो वहाँ इस पञ्चम काल की 21वीं शताब्दी में तो और भी अधिक कठिन है। वस्तुत: 'आत्मकल्याण' लक्ष्य है। अहिंसा और वीतरागता की कसौटी पर कसकर समस्त क्रियायें हों। मूर्तिपूजक श्वेताम्बरों ने श्रमण के 27 मूलगुण बतलाए हैं-1-5 पाँच महाव्रत, 6 रात्रिभोजन, 7-17 पृथ्वीकायिकादि रक्षाव्रत (पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, त्रसकाय, एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय जीवों का रक्षाव्रत), 18 लोभनिग्रह, 19 क्षमादि दशधर्म पालन, 20 शुभ भावना, 21 प्रतिलेखनादि शुद्ध क्रियायें करना, 22 संयम योगव्रत, 23-25 मन-वचन-काय गुप्ति, 26 शीतादि बाईस परीषहजय, 27 मारणान्तिक उपसर्ग सहत्व (सल्लेखना)। स्थानकवासी श्वेताम्बरों द्वारा मान्य साधु के 27 मूलगुण हैं- 1-5 पाँच महाव्रत, 6-10 पञ्च-इन्द्रियसंयम, 11-14 कषाय-निवृत्ति, 15-17 मन-वचन-काय समाधारण (गुप्ति), 18-20 भाव-करणयोग सत्य, 21-23 ज्ञानसम्यक्त्व, चारित्र सम्पन्नता, 24 क्षमा, 25 संवेग, 26 वेदना सहत्व (बाईस परिषहजय), 27 मारणान्तिक उपसर्ग सहत्व (सल्लेखना)। श्वेताम्बरों ने उपाध्याय और आचार्य के क्रमश: 25 और 36 गुण बतलाए हैं परन्तु उनके नाम दिगम्बरों से भिन्न हैं। श्वेताम्बर साधु श्वेतवस्त्र धारण करते हैं, कुछ पात्रों को आहारादि हेतु रखते हैं तथा ऊननिर्मित रजोहरण का जीवरक्षार्थ प्रयोग करते हैं। भिक्षान्न गोचरी वृत्ति से 2-3 घरों से लाकर उपाश्रय में एकाधिक बार ग्रहण करते हैं। जल कई बार लेते रहते हैं। पैदल चलना, केवल चातुर्मास में एक स्थान पर रहना आदि दिगम्बरों के समान हैं। साध्वी का दर्जा साधु से नीचे माना गया है। वस्त्रादि उपकरण रखने के कारण उनकी सफाई आदि करते हैं। दीक्षा का प्रयोजन आत्म-कल्याण है। दोनों परम्पराओं में प्रतिपादित श्रमणाचार को देखने से पता चलता है कि श्रमणदीक्षा आत्मकल्याण के लिए ली जाती है। उपदेश, धर्मप्रभावना आदि उसके आनुषङ्गिक कार्य हैं; मुख्य नहीं। दिगम्बरों के 21 मूलगुणों के साथ श्वेताम्बरों का प्रायः कोई विरोध नहीं है। शेष 7 गुणों में से केवल केशलोच को छोड़कर अन्य 6 मूलगुण उनके यहाँ नहीं हैं। जिनकल्पी श्रमण को अचेल जरूर कहा है। उत्तराध्ययनसूत्र में जब पार्श्वनाथ के शिष्य केशी और महावीर के शिष्य गौतम गणधर परस्पर मिलते हैं तो वहाँ महावीर का धर्म अचेल ही बतलाया है जिसे पार्श्वनाथ के शिष्य भी स्वीकार कर लेते हैं। अब प्रश्न यह है कि दिगम्बर श्रमण वर्तमान समय में कैसी चर्या करे ? वसतिका और आहार-साधु की वसतिका, उपकरण और आहार के सम्बन्ध में मूलाचार आदि ग्रन्थों में बहुत विस्तार से विचार है। यदि वसतिका और आहार शास्त्रानुकूल होगा तो शिथिलाचार का दोष नहीं पनपेगा। इसके लिए आवश्यक है कि नगर के बाह्य प्रदेशों में ऐसी वसतिकाएँ बनवाई जाएँ जहाँ साधु को शौचादि के लिए अनुकूल प्रदेश मिल सके तथा सांसारिक कोलाहल से दूर रहकर आत्मध्यान कर सकें। आहार के लिए नगर में प्रवेश करें अथवा वहीं आहार की व्यवस्था की जाए। साधु के साथ आहारादि के निमित्त चलने वाली ट्रक-व्यवस्था बन्द की जाए। गरिष्ठ भोजन तथा अनेक तरह के व्यञ्जन भी न हों परन्तु आवश्यक उन सभी तत्त्वों का समावेश हो जो शरीर को स्वस्थ रख सकें। साधु 246