________________ कारण स्थिति-अनुभाग बन्ध में बहुत अन्तर हो जाता है। (3) राजा, साधु या उच्च पदस्थ व्यक्ति के द्वारा बोले गए झूठ और साधारण व्यक्ति द्वारा बोले गए झूठ में बहुत अन्तर है। उच्च पदस्थ व्यक्ति के कथन का समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ता है जबकि साधारण व्यक्ति का कम असर पड़ता है। (4) कोई स्वयं हिंसा करता है, कोई दूसरों से करवाता है, कोई केवल अनुमोदना करता है, कोई केवल मन में कल्पना करता है, कोई वचन भी हिंसापरक बोलता है और कोई मन-वचन-काया तीनों से हिंसा करता है। इन सबके बन्ध में अन्तर है। (5) कोई हिंसा करने की सोचता है पर मौका न मिलने से नहीं कर पाता और दूसरा हिंसा करने के बारे सोचता नहीं, सावधानी भी रखता है फिर भी हिंसा हो जाती है। यहाँ हिंसा न करके भी मन में सङ्कल्प करने वाला ज्यादा बन्ध करता है। इससे स्पष्ट है कि स्थिति-अनुभाग बन्ध अन्धे कानून की तरह नहीं है। इसमें आभ्यन्तर भावों और परिस्थितियों का विशेष महत्त्व है। कोई देखे या न देखे आत्मा के भावों के अनुसार स्वचालित सतत् कम्प्यूटर यन्त्र की तरह यह बन्ध प्रक्रिया चलती रहती है। इसमें चूक नहीं होती बाहर की क्रियाओं से हम कोई सही निर्णय नहीं कर सकते / व्यक्ति स्वयं अपने कर्मों से अनुमान लगा सकता है, यदि निष्पक्ष दृष्टि से विचार करे। अर्चना- पिता जी! क्या पञ्चकल्याणक आदि धार्मिक आयोजनों से भी कर्मबन्ध होता है? पापा- बहू ! समयोचित प्रश्न है तुम्हारा। इस पर दिनांक 23.2.96 को होने वाली अखिल भारतवर्षीय विद्वत्सङ्गोष्ठी में इस पर विस्तार से विचार किया जायेगा। फिर भी इतना समझ लो कि इन धार्मिक आयोजनों से अल्प पापबन्ध जरुर होता तो है परन्तु पुण्य बन्ध अधिक होता है क्योंकि यह जनकल्याणकारी प्रशस्त कर्म है। अभिषेक - पापा बड़ी नींद आ रही है। पापा - अच्छा बेटे तुम ठीक कहते हो। चलो अब सो जाओ क्योंकि नींद की स्थिति में ठीक नहीं समझ सकोगे। कल प्रातः पञ्चकल्याणक की भूमिपूजा में भी जाना है। किन कार्यों से किस कर्म का बन्ध होता है (भूमि पूजन के बाद, शास्त्र सभा में एकत्रित होने पर समूह में से एक श्रोता पंडित जी से वही प्रश्न करते हैं जो बेटी मनीषा ने पूछा था - 'किन कार्यों के करने से किस कर्म का बन्ध होता है) एक श्रोता- महाशय, आपकी ज्ञानगोष्ठी में कर्म सिद्धान्त की चर्चा चल रही है। हम सभी लोग जानना चाहते हैं कि किन कार्यों के करने से किस कर्म का आश्रव व बन्ध होता है और कैसे उस कर्मबन्ध से बचा जा सकता है! पंडित जी- पहले यहाँ पर यह जान लो कि प्रत्येक कर्मबन्ध के जो अलग-अलग कारण बतलाए जा रहे हैं वे केवल उसी कर्म के बन्ध के कारण नहीं हैं अपितु अन्य कर्मों का भी साथ में बन्ध कराते हैं, जैसा पहले बतला चुके हैं अतः जैनाचार्यों ने अनुभागबन्ध की अधिकता की दृष्टि से अलग-अलग कारण बतलाए हैं जैसे - 1, 2. ज्ञानावरणीय एवं दर्शनावरणीय कर्मबन्ध के कारण-ज्ञानावरण और दर्शनावरण के अलग-अलग कारण नहीं है। ज्ञान और दर्शन (ज्ञानपूर्व अवस्था) में व्यवधान करना, ज्ञान या ज्ञानी के प्रति ईर्ष्याभाव रखना। जैसे (1) कोई तत्त्व ज्ञान का उपदेश करता हो तो मुख से कुछ न कहकर मन में उससे ईर्ष्याभाव रखना (प्रद्वेष)। (2) किसी के पूछने पर जानते हुए भी कहना कि मैं नहीं जानता या पुस्तक आदि ज्ञानसामग्री के माँगने पर पास में होते हुए भी कह देना मेरे पास नहीं है (निह्नव)।, (3) शास्त्र ज्ञान होने पर भी दूसरों को इसलिए न बताना कि वे जान जायेंगे और मेरे वरावर ज्ञाता हो जायेंगे (मात्सर्य), (4) ज्ञानाभ्यास में किसी भी तरह का विघ्न डालना जिससे दूसरा व्यक्ति ज्ञानार्जन न कर सके (अन्तराय)।, (5) सच्चे ज्ञानी की प्रशंसा न करना (आसादना)।, (6) निर्दोष ज्ञान में झूठे दूषण लगाना। यहाँ इतना विशेष है कि दुष्ट व्यक्ति के होने पर पुस्तक आदि न देने पर ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध नहीं होगा सम्भव है वह पुस्तक वापिस न करे या उसका दुरुपयोग करे। इसी तरह अन्य कारण भी जान लेना / .(3) सातावेदनीय कर्मबन्ध के कारण- दया करना, दान देना, सराग संयम का पालन करना, बाल तप (आत्मज्ञान हीन तप), क्षमा भाव (क्रोध शमन), लोभ त्याग (शौच) करना, अर्हन्त पूजा, मंदिर जाना, वैयावृत्ति करना, पञ्चकल्याणक करवाना आदि। पात्रादि के भेद से दया, दान आदि के फल में अन्तर पड़ता है। असाता वेदनीय कर्मबन्ध के कारण 254