________________ इनमें फल की तथा स्थायित्व की हीनाधिकता कर्म के आवरण के अनुसार होती है। ये कर्म एक सच्चे न्यायाधीश की तरह जीव की प्रत्येक क्रिया को लिखते से जाते हैं और तदनुसार फल देते हैं। कर्मों का फलभोग अवश्यम्भावी है। अच्छे कर्मों का सुखकर फल मिलता है और खोटे कर्मों का दुःखकर फल, अन्य के लिए किया गया कर्म भी, कर्ता के द्वारा ही भोगा जाता है, अन्य के द्वारा नहीं। यहाँ इतना विशेष है कि यह कर्म सिद्धान्त भाग्यवाद का पोषक नहीं है अपितु पुरूषार्थवाद का समर्थक है। इसमें भाग्य और पुरुषार्थ का समन्वय है। नैयायिक- हमने सुना है, आपके यहाँ कर्म के घातिया और अघातिया ये दो भेद हैं। इसका तात्पर्य क्या है। पापा- नैयायिक जी। आपने ठीक ही सुना है। आत्मा में दो प्रकार के गुण हैं। 1. अनुजीवी स्वाभाविक गुण या विशेष गुण 2. प्रतिजीवी (सहयोगी) गुण या सामान्य गुण। विशेष गुण वे हैं जिनसे आत्मा को पहचाना जाता है और जो केवल आत्मा में पाए जाते हैं, अन्य द्रव्यों में नहीं। जैसे ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य (शक्ति)। सामान्य गुण वे हैं जो आत्मा के अतिरिक्त अन्य द्रव्यों में भी पाए जाते हैं। जैसे अवगाहनत्व, अरूपत्व आदि। इन दोनों प्रकार के गुणों में से जिनसे अनुजीवी गुणों का घात (आवरण) होता है उन्हें घातिया: कर्म कहते हैं और जिनसे प्रतिजीवी गुणों का घात (आवरण) होता है उन्हें अघातिया कर्म, कहते हैं। वस्तुतः दोनों घातिया ही हैं, अपेक्षा भेद से उन्हें घातिया और अघातिया कहा जाता है। घातिया कर्म चार हैं- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय। शेष चार वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र, अघातिया कर्म हैं। प्रधानता घातिया कर्मों की है क्योंकि इनके हटने पर शेष चार अघातिया कर्म आयु पूरी होने पर निश्चय से हट जाते हैं। इसीलिए घातिया कर्मों के हटने पर जीव को जीवन्मुक्त कहा है और अघातिया कर्मों के भी हट जाने पर विदेह मुक्त या सिद्ध कहा जाता है। सिद्ध अवस्था प्राप्त होने के बाद पुनः संसार में आगमन नहीं होता है। घातिया कर्मों में भी मोहनीय कर्म सबसे प्रबल है। वह जैसे जैसे हटता जाता है वैसे वैसे अन्य घातिया कर्म भी हटते जाते हैं। जैनदर्शन में गुणस्थान व्यवस्था (आत्मविकास के चौदह सोपान) इसी पर आधारित हैं जिसकी व्याख्या बाद में करेंगे। अभिषेक-तत्त्वार्थ सूत्र में आचार्य उमास्वामी ने वेदनीय को मोहनीय के पूर्व तथा अन्तराय को सबसे अन्त में क्यों कहा है? वहाँ कर्मों का क्रम इस प्रकार बतलाया गया है- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय। वहाँ पहले घातिया कर्मों का फिर अघातिया कमों को क्यों नहीं कहा? पापा- बेटे! बहुत गहरी सोच है तुम्हारी। ऐसा है कि अन्तराय कर्म घातिया तो है। पर वह नाम, गोत्र और वेदनीय इन तीन कर्मों के साथ मिलकर ही अपने कार्य में प्रवृत्त होता है। इसी तरह वेदनीय कर्म सुख दुःख का वेदन बिना मोहनीय के नहीं करा सकता। अत: उसे मोहनीय के पहले कहा है। इतना और विशेष है कि वेदनीय को उपचार से घातिया भी कहा है तथा अन्तराय को अघातिया। क्योंकि सुख-दुःख का वेदन होने पर ही मोहनीय सक्रिय होता है और अन्तराय कर्म अन्य कर्मों के सहयोग से कार्य करता है। मनोरमा- स्वामिन् / आयु कर्म के सम्बन्ध में विशेष बात क्या है। कृपया स्पष्ट करें। पापा- चार गतियों के आधार पर आयु कर्म के चार भेद हैं-नरकायु, तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और देवायु। आयु कर्म का बन्ध जीवन में एक बार होता है, शेष सात कर्मों का बन्ध प्रतिक्षण होता रहता है। हमारी मानसिक, वाचिक और कायिक क्रिया के होते ही पुद्गल कर्म-परमाणु आत्मा की ओर आकृष्ट होते हैं। यदि उस समय जीव में क्रोधादि कषायें या राग द्वेष भाव होते हैं तो कर्म परमाणु रागादि की तारतम्यता के अनुसार आत्मा से बन्ध को प्राप्त हो जाते हैं। रागादि के न रहने पर वे कर्म परमाणु तुरन्त झड़ जाते हैं, आत्मा से बन्ध नहीं होता। जब कर्मों का बन्ध होता हो तो उनका आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कमों के रूप में योग्यतानुसार विभाजन हो जाता है। जैसे हमारे भोजन का रक्त, मज्जा, वीर्य आदि रूपों में। आयुकर्म का बन्ध सम्पूर्ण आयु के तृतीय भाग शेष रहने पर होता है। जैसे - किसी जीव की सम्पूर्ण आयु 99 वर्ष की है, तो वह 66 वर्ष के बाद 33 वर्ष शेष रहने पर अगले भव के आयु कर्म का बन्ध करेगा। अब यदि उस समय आयु कर्म के बन्ध का निमित्त नहीं मिलता है तो वह शेष आयु के त्रिभाग में आयु कर्म का बन्ध करेगा। इसी क्रम से आगे भी त्रिभाग-त्रिभाग करते जाना चाहिए जब तक आयुकर्म न बँधे। विषभक्षण या दुर्घटना के होने पर जब अकाल मृत्यु होती है तो तत्क्षण आयु कर्म बँध जाती है। एक बार नरकादि आयु कर्म बँधने के बाद में फिर नहीं बदलता, उसमें आयु सीमा घट बढ़ सकती है, परिणामों के अनुसार। मनीषा- पापा / मैं भी कुछ पूछना चाहती हूँ। 252