________________ दुर्गुण न होने पर भी उसमें दुर्गुण बतलाना, अपने अन्दर गुण न होने पर भी अपने को अनेक गुणों से युक्त बतलाना, अपनी जाति- विद्या- रूप आदि का अहंकार करना, दूसरों की कृति को अपनी बताना आदि। उच्च गोत्र कर्मबन्ध के कारण- जो कारण नीच गोत्र कर्मवन्ध के बतलाए हैं उनसे विपरीत आचरण करना। जैसे अपने दोषों की छानबीन करते रहना, दूसरों के अच्छे गुणों को प्रकट करना, नम्रता आदि। 8. अन्तराय कर्मबन्ध के कारण- दान में विघ्न पैदा करना, भोगोपभोग में बाधक बनना, लाभ होने में बाधक होना, शक्ति के अपहरण में निमित्त बनाना। अर्थात् दूसरों के लाभ या उत्कर्ष में रूकावटें पैदा करना। इस तरह कर्मबन्ध के कारणों का विचारकर हमें ऐसा आचरण करना चाहिए जो हमें इस जन्म में और जन्मान्तर में कल्याणकारी हो। समाजशास्त्र, नीतिशास्त्र और मनोविज्ञान शास्त्र के सिद्धान्तों से इस व्यवस्था में कहीं कोई विरोध नहीं है। दशलक्षण या पर्युषण पर्व दशलक्षण पर्व के लिए श्वेताम्बर परम्परा में पर्युषण शब्द प्रसिद्ध है। 'पर्युषण' इस संस्कृत शब्द का अर्थ हैजिसमें सब ओर से पापकर्मों को जलाया जाए (परितः समन्तात् उष्यन्ते-दह्यन्ते कर्माणि यस्मिन् तत् पर्दूषणम्) / प्राकृत में इसे 'पेज्जूषण' कहा जाता है-पेज्ज' अर्थात् रागद्वेष और 'ऊषण' अर्थात् जलाना। इस तरह 'पर्युषण' का अर्थ हुआ 'रागद्वेष या संसार-परिभ्रमण के कारणभूत कर्मबन्ध की निर्जरा (नष्ट) करना।' जैसे क्रिश्चियन में 'क्रिसमस' का, मुसलमानों में 'रमजान' का और हिन्दुओं में 'नवरात्र-दशहरा' का महत्त्व है वैसे ही जैनों में दशलक्षण या पर्युषण का महत्त्व है। यह एक आध्यात्मिक साधना तथा आत्मावलोकन का महापर्व है। इसे मिनी (छोटा) चातुर्मास भी कहते हैं। साधु तो महाव्रती होते हैं अतः वे पूर्ण रूप से धर्मनिष्ठ हैं परन्तु गृहस्थ कई कार्यों में व्यस्त रहता है। अतः उन्हें विशेष रूप से यह पर्व समाचरणीय है। इसमें गृहस्थ (श्रावक) अहिंसक आचरण का अभ्यास करते हैं, तन, वचन और मन को मांजकर उन्हें निर्मल करते हैं, क्षमा-अहिंसा को रोमरोम में बसाते हैं, आत्मा को सम्यक्त्व के रस में डुबोते हैं, अप्रमत्त होकर सर्व-परिग्रह से मुक्ति की कामना करते हैं, आत्मनिर्भर होकर आकांक्षाओं को सीमित करते हैं, क्रोध, ईर्ष्या आदि जो आत्मा के विभाव-भाव हैं उन्हें हटाकर सम्यक्त्वी क्षमा आदि स्वभाव-भाव की ओर अग्रसर होते हैं। इन दिनों में बच्चा-बच्चा एकासना या उपवास करने की इच्छा करता है। स्थानाङ्गसूत्र में धर्म के चार मार्ग बतलाए हैं जो चारों कषायों के अभाव रूप हैं- क्षमा, मार्दव, आर्जव और निर्लोभता। श्वेताम्बर परम्परा में यह पर्व आठ दिनों का होता है जिसे वे दिगम्बरों से पहले भाद्रपद कृष्णा बारस से भाद्रपद शुक्ला चतुर्थी तक मनाते हैं तथा पञ्चमी को अथवा चतुर्थी को 'संवत्सरी' (क्षमा पर्व) का आयोजन करते हैं। संवत्सरी (संवत् अर्थात् वर्ष) का अर्थ है 'वार्षिक-प्रतिक्रमण' (दोषों का परिमार्जन, आभ्यन्तर कचड़ा हटाना एवं क्षमाभाव)। संवत्सरी को पज्जोसवणा या वर्षधर पर्व भी कहा जाता है। क्षमा एक 'कल्पवृक्ष' है जो स्वस्थ निर्मल चित्त की उर्वरा (उपजाऊ) भूमि में खूब लहलहाता (फलीभूत होता) है। पर्युषण पर्व की आराधना से निर्मल हुए चित्त में क्षमापना या समापन पर 'क्षमा' या 'मिच्छा मे दुक्कडं' (मेरा अपराध मिथ्या हो) सार्थक है। इस दिन सामूहिक प्रतिक्रिमणपाठ पढ़ा जाता है और परस्पर क्षमाभाव के बाद साधार्मिक वात्सल्य भोज की स्वस्थ परम्परा है। प्रतिदिन करणीय प्रतिक्रमण की अपेक्षा इस वार्षिक (सांवत्सरिक) प्रतिक्रमण का बड़ा महत्त्व है। श्वेताम्बर इसे 'अष्टाह्निक पर्व भी कहते हैं। जीवाभिगम सूत्र में कहा है कि वर्ष में चार अष्टाह्निक पर्व आते हैं जो चैत्र सुदी, आषाढ़ सुदी, भाद्रपद सुदी और आश्विन सुदी सप्तमी से चतुर्दशी तक या अष्टमी से पन्द्रस तक। जो वर्ष में छह अष्टाहिक पर्व मानते हैं वे इनमें कार्तिक सुदी और फाल्गुन सुदी को जोड़ देते हैं। ऐसी मान्यता है कि इन दिनों में देवगण नन्दीश्वर द्वीप जाते हैं और वहाँ अठाई महोत्सव मनाते हैं। दिगम्बर परम्परा में यह अलग पर्व है और वर्ष में तीन बार आता है- आषाढ़ सुदी (8-15), कार्तिक सुदी (8-15) तथा फाल्गुन सुदी (8-15) कर्म आठ हैं, सिद्धों के गुण 8 हैं, प्रवचनमातायें 8 हैं, अतः पयूषण पर्व भी आठ दिनों का होता है। इन आठ दिनों में कर्मों की निर्जरा, सिद्धों के गुणों की साधना और प्रवचन-माताओं की आराधना की जाती है। 'अन्तगडसूत्र' का अथवा 'कल्पसूत्र का पाठ किया जाता है। 'कल्प' का अर्थ है। साधु की आचारविधि'। भद्रबाहु प्रणीत कल्पसूत्र में चौबीस तीर्थङ्करों का जीवन चरित्र है तथा 256