________________ महावीर की उत्तरवर्ती स्थविरावलि भी है। इसकी गणना छेदसूत्रों में की जाती है। यह स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं अपितु दशाश्रुतस्कन्ध का आठवाँ अध्ययन है। अन्तगड सूत्र में भगवान् नेमिनाथ और महावीर युग के 90 आत्म-साधकों का इसके पाठ का प्रचलन हुआ है। विशेषकर प्रथम तीन दिन अष्टाह्निका व्याख्यान होता है और चौथे दिन से कल्पसूत्र की नौ वाचनाएँ होती हैं। पाँचवें दिन तीर्थङ्कर माता त्रिशला के चौदह स्वप्न बतलाते हैं। छठे दिन महावीर की जीवनचर्या को बतलाकर उनका जन्म दिन भी मनाया जाता है। सातवें दिन तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ, नेमिनाथ और आदिनाथ का क्रमशः वर्णन किया जाता है। आठवें दिन सांवत्सरिक प्रतिक्रमण पढ़ा जाता है। आठों दिन धार्मिक आयोजन होते हैं। संवत्सरी के दिन कल्पसूत्र का मूलपाठ (श्री वारसासूत्र) पढ़ा जाता है। कालान्तर में श्वेताम्बरों में निम्न चार प्रमुख पन्थ हुए- 1. खरतरगच्छ जिसकी स्थापना वि.सं. 1204 में आ. जिनवल्लभसूरि के शिष्य आ. जिनदत्तसूरि ने की थी। 2. अचलगच्छ जिसकी स्थापना वि.सं. 1213 में श्री आ. आर्यरक्षित या विजयचन्द्र सूरि ने की थी।, 3. स्थानकवासी (लुकामत या लोकागच्छ) जिसकी स्थापना वि.सं. 1508 में हुई थी; ये संवत्सरी भादों सुदी पञ्चमी को मनाते हैं।, 4. तेरापन्थ जिसकी स्थापना वि.सं. 1818 में श्री आ. भीखम जी ने की थी तथा आचार्य तुलसी और महाप्रज्ञ जिसके अनुयायी थे। ये सभी कल्पसूत्र की वाचना करते हैं। दिगम्बर परम्परा इस पर्व को 'दशलक्षण' पर्व के नाम से मनाते हैं। जिसमें उत्तम क्षमा आदि दश धर्मों की आराधना की जाती है अथवा तद्रूप आचरण किया जाता है। यहाँ उत्तम शब्द सम्यक्त्व का बोधक है। वे दश धर्म निम्न हैं - 1. उत्तम क्षमा (क्रोध पर संयम), 2. उत्तम मार्दव (मृदुता या मान कषाय पर संयम), 3. उत्तम आर्जव (ऋजुता, सरलता या माया कषाय पर संयम), 4. उत्तम शौच (शुचिता या लोभ कषाय पर संयम), 5. उत्तम सत्य (सत्यनिष्ठता या हित-मित-प्रिय वचन व्यवहार), 6. उत्तम संयम (शरीर, इन्द्रिय और मन पर नियन्त्रण), 7. उत्तम तप (उपवास आदि बाह्य तप तथा प्रायश्चित्त आदि आभ्यन्तर तप करना), 8. उत्तम त्याग (बाह्य धनादि परिग्रह तथा अहंकार आदि आभ्यन्तर परिग्रह का विसर्जन), 9. उत्तम आकिञ्चन (शरीरादि से पूर्ण निर्लिप्त होना) और 10 उत्तम ब्रह्मचर्य (कामेच्छा से रहित होकर आत्म-ध्यान में लीन होना) / वस्तुत: ये दश धर्म नहीं हैं अपितु एक ही धर्म के दश लक्षण हैं जिसका तात्पर्य है कि कोई भी धर्म का पालन करोगे तो शेष का भी पालन करना पड़ेगा क्योंकि ये सभी आत्मा के स्वभाव हैं और एक दूसरे में गतार्थ हैं। यह पर्व दिगम्बरों में 10 दिन का होता है और क्रमशः एक-एक दिन एक-एक धर्म (उत्तम क्षमा आदि) का विशेष पालन किया जाता है। देव-पूजन, शास्त्र-स्वाध्याय आदि धार्मिक आयोजन होते हैं। यह पर्व यद्यपि आष्टाह्निकों की तरह वर्ष में तीन बार (चैत्र, भाद्रपद और माघ मास में शुक्ल पक्ष की पञ्चमी से चतुर्दशी तक) आता है परन्तु भाद्रपद में ही इसके मनाने का विशेष व्यवहार है। श्वेताम्बरों में तीन बार का कोई उल्लेख नहीं है। दिगम्बरों में यह पर्व श्वेताम्बरों की सम्पूर्ति होने के बाद मनाया जाता है। दिगम्बरों के दशलक्षण पर्व के मध्य में अन्य व्रत भी आते हैं, जैसे - षोडशकारण, लब्धिविधान, रोटतीज, पुष्पाञ्जलि, शील-सप्तमी, सुगन्धदशमी, अनन्तव्रत, अनन्तचतुर्दशी, तीर्थङ्कर शान्तिनाथ एवं सुपार्श्वनाथ का गर्भ कल्याणक, तीर्थङ्कर पुष्पदन्त और वासुपूज्य का निर्वाण (मोक्ष) कल्याणक दिगम्बरों में इस पर्व को भाद्रपद (5-14 तिथियों) में मनाने के पीछे एक घटना का उल्लेख आता हैअवसर्पिणी (जिस काल में धर्म का और सुखादि का क्रमशः ह्रास होता है) के पश्चम आरा या काल (दुःखमा) की समाप्ति तथा छठे काल (दुःखमा-दुःखमा) के प्रारम्भ होने पर हिंसा प्रधान अनार्यवृत्ति का आविर्भाव हो जाता है। छठे काल के समाप्त होने पर और उत्सर्पिणी (जिस काल में धर्म और सुखादि का क्रमश: विकास होता है) के प्रथम काल (दुःखमा-दुःखमा) का प्रारम्भ होने पर श्रावण कृष्ण प्रतिपदा से सात सप्ताह (7x7=49 दिन) तक सात प्रकार की भयङ्कर कष्टकारी वर्षा होती है पश्चात् धर्माराधना का सुयोग आता है। इसी समय सौधर्म इन्द्र विजया की गुफा से स्त्री. पु. के 72 जोड़ों को बाहर निकालता है जिन्हें उसने प्रलय के समय (49 दिन पूर्व) वहाँ छुपाया था। श्वेताम्बर ग्रन्थ जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति में यह घटना उत्सर्पिणी के प्रथम आरा की समाप्ति तथा द्वितीय आरा के प्रारम्भ होने पर बतलाई है और तदनुसार श्वेताम्बर रस मेघ वाले सातवें सप्ताह में भाद्रपद कृष्णा 12 से पर्युषण पर्व मनाते हैं तथा अन्त में भाद्रपद शुक्ला चतुर्थी या पञ्चमी को संवत्सरी मनाते हैं। यही दोनों परम्पराओं में अन्तर है। इसे हम वर्तमान वर्षा आदि के समयचक्र से भी समझ सकते हैं। आश्विन कृष्णा एकम् को दिगम्बर (संवत्सरी) क्षमावाणी मनाते हैं। परस्पर गले लगकर एक दूसरे से क्षमा याचना करते हैं तथा सहभोज आदि करते हैं। 257