________________ पापा- बेटी / सूर्यास्त होने जा रहा है। चलो, पहले सायंकालीन भोजन कर लें, पश्चात् रात्रि में पुन: चर्चा करेंगे। [तीर्थ क्षेत्र पपौसा जी की जैन धर्म शाला में रात्रि सात बजे का समय / पास में अङ्गीठी जल रही है। सब लोग उसके चारों ओर कर्म सिद्धान्त की चर्चा करने बैठे हैं। बहू अर्चना का प्रवेश) अर्चना- पिता जी! क्या हम भी आपकी ज्ञानगोष्ठी में बैठ सकते हैं। मैंने अपने पतिदेव से आपकी कर्मसिद्धान्त की बातें सुनीं। बड़ी अच्छी लगीं। वे कह रहे थे तुम भी ज्ञानगोष्ठी में आया करो। पापा- बहू! तुम मायके से आ गई। आओ तुम भी बैठो। मनीषा- पापा! 'किन कार्यों के करने से कौन सा कर्मबन्ध होता है और क्या और कैसे उस कर्मबन्ध से बचा जा सकता है बतलाएँ सब लोग जानना चाहते हैं। पापा-बेटी! इससे पूर्व यह समझो कि कर्मबन्ध होता कैसे है! मन, वचन और शरीर की क्रिया को जैन दर्शन में 'योग' कहा गया है। लोक व्यवहार में 'योग' शब्द का प्रयोग ध्यान के अर्थ में प्रयुक्त है जिसका अर्थ है 'मन' वचन और शरीर की चेष्टाओं को रोककर किसी एक केन्द्र बिन्दु पर लगाना यह अर्थ यहां नहीं लेना। मन, वचन और काया की प्रवृत्ति रूप योग के होने पर आत्म प्रदेशों में परिस्पन्द (सञ्चलन) होता है जिसके कारण जड़ कर्म परमाणु आत्मा की ओर आकृष्ट होते हैं। जैसे चुम्बक की ओर लोहा आकृष्ट होता है। कर्मों के इस आगमन को 'आस्रव' कहते हैं। अच्छे उद्देश्य से की गई क्रिया प्रशस्त (शुभ) मानी जाती है और खोटे उद्देश्य से की गई क्रिया अप्रशस्त (अशुभ)मानी जाती है। अत: आत्मा के शुभ परिणामों (दया, सत्य वचन, परोपकार आदि भावों) से जो योग होता है उसे 'शुभ योग' कहते हैं और अशुभ परिणामों (हिंसा, असत्यवचन, चोरी, ईर्ष्या आदि भावों) से जो योग होता है उसे अशुभ योग कहते हैं। शुभ योग से पुण्य कर्मों का और अशुभ योग से पाप कर्मों का प्रधानता से आस्रव होता है। अर्चना- पिता जी! क्या जिन कर्मों का आस्रव होता है, वे सभी बन्ध को प्राप्त होते हैं? यदि ऐसा है तो हमें कभी भी कर्मबन्ध से छुटकारा नहीं मिल सकता है। पापा- बहू! जिन कर्मों का आस्रव होता है वे सभी बन्ध को प्राप्त नहीं होते। अपितु वे ही बन्ध को प्राप्त होते हैं जो रागादिभावों से प्रेरित होते हैं। बन्ध चार प्रकार का होता है - (1) प्रकृति बन्ध (कर्म का आस्रव होते ही उसमें ज्ञानदर्शन को रोकने, सुख-दुःख देने आदि का स्वभाव बनाना अर्थात् कर्मों का ज्ञानावरणीय आदि रूप से विभाग होना), (2) प्रदेशबन्ध (एक काल में जितने कर्म परमाणु बन्ध को प्राप्त होते हैं उनका परिमाण या संख्या), (3) स्थितिबन्ध (बँधने वाले कर्म का आत्मा के साथ कब तक सम्बन्ध रहेगा ऐसी काल मर्यादा का निश्चित होना) और (4) अनुभाग बन्ध या अनुभव बन्ध (कर्मबन्ध के समय ही कर्म के फल देने का हीनाधिक शक्ति का निश्चित होना)। इन चार प्रकार के कर्मबन्ध प्रकारों में प्रथम दो प्रकार के कर्मबन्ध तो योग के निमित्त से प्रतिसमय सोतेजागते बराबर होते रहते हैं परन्तु शेष दो प्रकार का कर्मबन्ध तभी होता है जब राग-द्वेषादि भाव हों या क्रोधादि कषायरूप परिणाम हो। राग-द्वेष या कषायों की तीव्रता और मन्दता से स्थिति बन्ध और अनुभाग बन्ध में अन्तर पड़ता है। इसीलिए कषाय सहित योग को 'साम्परायिक आस्त्रव' (स्थिति बन्ध और अनुभाग बन्ध में प्रमुख कारण) कहते हैं तथा कषायरहित योग को 'ईर्यापथ आस्रव' (मात्र प्रकृति बन्ध और प्रदेश बन्ध में कारण) कहते हैं अर्थात् जैसे गीली दीवाल पर पड़ी हुई धूलि दीवाल के साथ चिपक जाती है वैसे ही कषाय सहित योग से ग्रहण किए गए कर्म आत्मा से संपर्क कर चिपक जाते हैं, बन्ध को प्राप्त हो जाते हैं। यदि दीवाल में गीलापन न हो, सूखी हो तो वह धूलि दीवाल से चिपकती नहीं तत्काल झड़ जाती है, इसी तरह कर्मों को जब आत्मस्थ राग-द्वेषरूप गीलापन नहीं मिलता तो वे आत्मा से तत्काल अलग हो जाते हैं। अत स्थिति और अनुभाग बन्ध के अभाव में प्रकृति- प्रदेश बन्ध नगण्य है। पहले से दसवें गुणस्थान तक जीव हीनाधिक कषाय सहित होते हैं तथा उसके आगे के गुणस्थान वाले मुनि कषायरहित अवस्था वाले होते हैं। इसीलिए उन्हें कर्मबन्ध नहीं होता। आठवें से 10वें गुणस्थान के क्षायिक श्रेणी वाले जीव भी कषाय रहित होते मनीषा- पापा! क्या एक सा काम करने वालों को एक ही प्रकार का कर्मबन्ध होता है या उसमें कुछ विशेषता है। पापा- बेटी! बहुत महत्त्वपूर्ण प्रश्न है तुम्हारा। कल्पना करो, निम्न पाँच परिस्थितियों से कर्मबन्ध होने पर-(1) कोई व्यक्ति किसी को मारने का तीव्र भाव रखता है और दूसरा मन्दभाव रखता है, तो दोनों की बाह्य क्रिया समान होने पर भी उनके स्थिति -अनुभाग बन्ध में तीव्र-मन्द भावानुसार बहुत अन्तर हो जाता है। (2) कोई व्यक्ति किसी को जानबूझकर मारता है और दूसरे व्यक्ति से अज्ञानता में हिंसा हो जाती है। इन दोनों में हिंसा समान होने पर भी ज्ञात-अज्ञात भाव के 253