________________ उद्दिष्टत्यागी और आरम्भत्यागी होता है और श्रावक साधु के निमित्त ही आहार बनाता है जिससे साधु धर्म में अतिचार आता है। यदि श्रावक अतिथि-संविभागव्रती और शुद्ध आहार करने वाला हो तो साधु को दोष नहीं लगेगा। अतः श्रावक का यह कर्तव्य है कि वह शुद्ध आहारी हो। अदन्तधावन, केशलोच, नग्नत्व, अस्नान और स्थित-भोजन ये 5 गुण कभी-कभी पर-मतावलम्बियों के द्वारा आलोचना के विषय बनते हैं। जहाँ तक अदन्तधावन और अस्नान का प्रश्न है सो श्रावक आहार के समय अंशत: परिमार्जन कर देता है। स्थित-भोजन ऐसा हो कि अन्नादि कण जमीन पर न गिरे। केशलोच और नग्नत्व यदि अन्यमतावलम्बियों को अच्छा नहीं लगता तो न लगे। 'मयूरपिच्छ' को लेकर भी कुछ लोगों को अहिंसा को लेकर आपत्ति है परन्तु इस विषय का जब तक समुचित विकल्प नहीं मिलता है तब तक इसे न छेड़ा जाए। मेरे विचार से सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि सर्वपरिग्रह-त्यागात्मक वीतरागी यह श्रमण दीक्षा आयु के अन्तिम पड़ाव पर कठिन परीक्षण के बाद दी जाए। 'ऐलक' और 'क्षुल्लक' को श्रावक महत्त्व देवें और वे श्रमणचर्या का अधिकांश अभ्यास करते रहें। तेरापन्थी श्वेताम्बर आचार्य तुलसी ने इसीलिए 'समण-समणी' की परम्परा विकसित की है जो श्रमण तो नहीं है परन्तु श्रमणचर्या करते/करती हैं। वे वाहन-प्रयोग कर सकते हैं। इसका प्रयोग प्रभावना को प्रचारित करना है। दिगम्बर भी क्षुल्लक एवं ऐलक से यह कार्य ले सकते हैं और देश-विदेश में अपने धर्म की प्रभावना कर सकते हैं क्योंकि श्रमण यह कार्य नहीं कर सकता है। यदि हम परिस्थितियों की ओट में श्रमण के नियमों में ढील देंगे तो शिथिलाचार बढ़ता ही जाएगा। अतः आगम-परम्परा को अक्षुण्ण बनाए रखने में श्रावक को आगे आना होगा। मेरे विचार से चस्मा लगाने में कोई दोष नहीं है क्योंकि इसके अभाव में आहार आदि का शोधन ठीक नहीं होगा, अहिंसाव्रत में दोष होगा। लेपटाप, मोबाइल आदि को ज्ञान साधन मानकर श्रमण न रखे। ट्वायलेट का प्रयोग भी अनुचित है। विशेष परिस्थिति में नदी पार करने हेतु नौका प्रयोग कर सकते हैं परन्तु प्रायश्चित्त करें, यह अपवाद मार्ग है। मेरे मित्र श्री जमना लाल जी जैन सर्वोदयी विचारधारा से प्रभावित होकर मुनिचर्या सम्बन्धी अनेक बातों की आलोचना करते हैं जो आत्मकल्याणार्थी श्रमण के विषय में अनुपयुक्त हैं। उनकी सर्वोदयी दृष्टि श्रावक पर लागू हो सकती है, श्रमण पर नहीं। टिप्पणी 1. जैनधर्म, पं0 कैलाश चन्द्र जैन, पृ0 219-222 2. समणो त्ति संजदो त्ति य रिसि मुणि साधु त्ति वीदरागो त्ति। णामाणि सुविहिदाणं अणगार भदंत दंतो त्ति / / मू0आ0 888, बृहद्नयचक्र 332, प्रवचनसार, ता0 वृ0 249, भगवान् महावीर और उनका तत्त्वदर्शन (आ0 देशभूषण जी), पृ0 666-673 3. सीह-गय-वसह-मिय-पसु-मारुद-सुरूवहिमदरिंदु-मणी। खिदि-उरगंबर-सरिसा परमपयविभग्गया साहू / / ध0 1/1.1.1./31/51 तथा देखिए पञ्चाध्यायी, उ0 670 विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः। ज्ञान-ध्यान-तपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते / / र0क0 10 4. मूलं छित्ता समणो जो गिण्हादि य बाहिरं जोगं। बाहिरजोगा सव्वे मूलविहूणस्स किं करिस्संति / मू0आ0 920 तथा पञ्चनंदि पञ्चविंशतिका 1/40 मूलाचार प्रदीप 4.312 से 319 चक्टुं वा दुब्बलं जस्स होज्ज सोदं वा दुब्बलं जस्स। जंघाबल-परिहीणो जो ण समत्थो विहरिदुं वा / / भ0 आ0 73 5. वद-समिदिदियरोधो लोचावस्सयमचेलमण्हाणं। खिदि-सयणमदंत-धोवणं ठिदि-भोयणमेगभत्तं च। प्र0सा0 208, तथा देखें मूलाचार 1.2.3 6. नवपदाराधनविधि, पृ0 133 7. जैन स्तवप्रकाश, अमोलक ऋषि 8. उत्तराध्ययनसूत्र, केशी-गौतमीय अध्ययन 23.29 9. मुनि महाराज के मूलगुण : एक चिन्तन, पं0 जमना लाल जैन, सारनाथ 247