________________ इक्कीसवीं शताब्दी और श्रमणाचार : एक मौलिक चिन्तन ईशा की 21वीं शताब्दी का अभी एक दशक ही बीता है और भौतिकता की चकाचबन्ध ने श्रावक और श्रमण सभी को अपने आगोश में समेट लिया है। टी0वी0, कम्प्यूटर, मोबाइल आदि की संस्कृति ने चारों ओर आग में घी डालने का कार्य किया है। सुख-सुविधाओं का अम्बार लग जाने से व्यक्ति सुविधाभोगी हो गया है। खाने-पीने की चीजों में जहरीली दवाओं, अखाद्य वस्तुओं आदि की मिलावट ने शुद्धता को निगल लिया है। पर्यावरण विशाक्त हो गया है। जनसंख्या में वृद्धि होने से जंगल धीरे-धीरे वीरान हो रहे हैं। उपजाऊ भूमि बंजर होती जा रही है। श्रावकों की दिनचर्या भागम-भाग एवं तनावग्रस्त होने से उन्हें अध्यात्म के लिए समय निकालना कठिन हो गया है। श्रमणों में भी बहुविध शिथिलाचार पनपने लगा है। श्रमणों में शिथिलाचार का प्रवेश कराने में श्रावक भी बराबर के भागीदार हैं। श्रावक, साधुओं से अपना दु:खड़ा रोते हैं, आरम्भ-बहुल आयोजनों में उनको प्रभावना के नाम पर खसीटते हैं। हीटर, कूलर आदि से सुसज्जित महलों को उनकी वसतिका बनाते हैं, खुले मैदान समीप में न होने से छतों या कमरों में शौचादि कराके सेवक मनुष्यों से उठवाते हैं, शौचालयों के प्रयोग करने को समय की मांग बतलाते हैं, गरिष्ठ आहार देने की आवश्यकता बतलाते हैं, स्त्रियाँ उनके समीप जाकर चरण स्पर्श करती हैं, आज तो कई तरह के अनाचार भी श्रमणों के बारे में सुनने में आ रहे हैं। श्रावक इस पर अंकुश रखें। इन परिस्थितियों में श्रमणाचार में समागत शिथिचार को कैसे रोका जाए? इस पर विचार करने के पूर्व शास्त्रानुमोदित श्रमणाचार पर विहंगम दृष्टि डालना आवश्यक है - जब कोई श्रावक क्रमश: आत्म-विकास की दर्शन, व्रत आदि प्रतिमाओं का अभ्यास करते हुए उद्दिष्टत्याग नामक ग्यारहवीं अन्तिम प्रतिमा में पहुँचकर 'ऐलक' हो जाता है तब वह जैन साधु बनने का अधिकारी होता है। साधुसङ्घ में रहते हुए भी ऐलक अवस्था तक वह श्रावक की श्रेणी में ही आता है। इसके बाद उसकी योग्यता का परीक्षण करके आचार्य विधिपूर्वक श्रमण दीक्षा देते हैं और वह अपनी लंगोटी का भी त्याग करके दिगम्बर मुनि हो जाता है। जैन श्रमण के लिए जिन नामों का शास्त्रों में प्रयोग मिलता है उनसे उनके गुणों और चर्या का बोध होता है, जैसे श्रमण (श्रम = तपश्चरण करने वाला या समता-भाव रखने वाला), संयत (संयमी), मुनि (चिन्तन-मनन करने वाला), ऋषि (ऋद्धिधारी), वीतरागी, अनागार (घर, स्त्री आदि के सम्बन्धों का त्यागी), भदन्त (सब कल्याणों को प्राप्त), दान्त (पञ्चेन्द्रिय-निग्रही), यति (इन्द्रियजयी), भिक्षु, योगी (तपस्वी), निर्ग्रन्थ (कर्मबन्धन की गाँठ से मुक्त), क्षपणक, निश्चल, मुण्ड (ऋषि), दिग्वास, वातवसन, विवसन (वस्त्ररहित), आर्य, अकच्छ (लंगोटी से रहित) आदि। धवला में श्रमणों के गुणों को बतलाते हुए कहा है- 'सच्चे श्रमण को सिंह के समान पराक्रमी, हाथी के समान स्वाभिमानी, वृषभ के समान भद्रप्रकृति, मृग के समान सरल, पशु के समान निस्पृह गोचरी वृत्ति वाला, वायु के समान निःसङ्ग (सर्वत्र भ्रमण करने वाला), सूर्य के समान तेजस्वी या तत्त्व प्रकाशक, समुद्र के समान गम्भीर, सुमेरु के समान अकम्प, चन्द्रमा के समान शान्तिदायक, मणि के समान ज्ञान-प्रभापुञ्जयुक्त, पृथ्वी के समान सहनशील, सर्प के समान अनियत वसतिका में रहने वाला, आकाश के समान निर्लेप होना चाहिए। शुद्धोपयोगी वैराग्य की पराकाष्ठा को प्राप्त, प्रभावशाली, दयाशील, परिषह-विजेता, कामजयी, उपसर्गविजेता, शास्त्रोक्त विधि से आहार लेने वाला साधु 28 मूलगुणों तथा चौरासी लाख उत्तरगुणों को धारण करता है। ये मूलगुण और उत्तरगुण उसके अंशतः बहिरंग चिह्न हैं तथा आकांक्षा-रहित होकर शुद्धात्मभाव में लीन रहना अन्तरङ्ग चिह्न है। छठे गुणस्थान से दशवें गुणस्थान तक साधु सराग-चारित्रवाला कहलाता है और इसके बाद के गुणस्थानों में वीतराग चारित्र वाला या यथाख्यात चारित्रधारी कहा जाता है। भावरूप ध्यान की स्थिति में वह छठवें-सातवें गुणस्थान में झूला करता है। यदि परिणामों में अशुभ, क्रूरता आदि रूप परिणति होती है तो प्रथम गुणस्थान में भी पतित हो सकता है और तब वह साधु नहीं रह जाता है क्योंकि छठे गुणस्थान को प्राप्त व्यक्ति ही साधु कहलाता है। यदि कोई साधु मूलगुणों के पालन करने में अशक्त हो जाता है तो वह श्रमणचर्या पालन के योग्य नहीं रह जाता है। 245