________________ बाद में सम्राट अशोक के शासन काल में स्पष्ट रूप से हो गया। आचार्य वसुमित्र ने और चीनी यात्री इत्सिङ्ग ने 18 निकायों में विभक्त होने का उल्लेख किया है। जैन धर्म प्रारम्भ में दिगम्बर और श्वेताम्बर के रूप में विकसित हुआ परन्तु बाद में उनमें भी अवान्तर भेद हो गए। ऐसा होने पर भी मूल सिद्धान्तों में प्रायः मतभेद नहीं हुए। बौद्धों में आज दो प्रकार से भेद मिलते हैं- (1) हीनयान, महायान और (2) वैभाषिक-सौत्रान्तिक-योगाचार-माध्यमिक। 12. दोनों ने संसार के सभी पदार्थों में क्षणिकता को देखा, परन्तु जैनों ने उस क्षणिकता में नित्यता को भी बनाये रखा और द्रव्य की परिभाषा की उत्पादव्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत्। 'सत् द्रव्यलक्षणम्।' अर्थात् उत्पत्ति विनाश के साथ जो ध्रुव (नित्य) भी हैं वही सत् है। सत् ही द्रव्य है। कूटस्थ नित्य सत् नहीं हो सकता। सर्वथा अनित्य भी सत् नहीं हो सकता। बौद्धों ने नित्यता को सिरे से नकार दिया, परन्तु सन्तान परम्परा को मानकर उसे एक प्रकार से सन्तति नित्यता प्रदान कर दी। उन्होंने सत् का लक्षण किया 'अर्थक्रियाकारित्वं सत्' अर्थात् जिसमें अर्थक्रिया की सामर्थ्य हो वही सत् है। यह अर्थक्रिया कूटस्थ नित्यता में सम्भव नहीं। 13. दोनों ने वेदों में न तो प्रामाण्य स्वीकार किया और न उनको अपौरुषेय स्वीकार किया। 14. दोनों में ईश्वर को इस जगत् का सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता और संहारकर्ता स्वीकार नहीं किया। सब जीव अपने पुरुषार्थ से या कुशल कर्मों से महान् बनते हैं। 15. जैनों ने मुक्ति के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय को आवश्यक माना। ये तीनों मिलकर मोक्षमार्ग बनाते हैं पृथक्-पृथक् तीन मार्ग भक्तियोग, ज्ञानयोग व कर्मयोग नहीं हैं। बौद्ध ग्रन्थों में इसे ही अष्टाङ्गमार्ग कहा है सम्यग्दृष्टि, सम्यक् सङ्कल्प, सम्यग्वाक्, सम्यक् कर्मान्त, सम्यग्आजीव, सम्यग्व्यायाम, सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि। इनमें प्रथम दो प्रज्ञा से, अन्तिम दो समाधि से तथा मध्यवर्ती चार शील से सम्बन्धित हैं। इन तीनों को रत्नत्रय कहा है जो जैनों के रत्नत्रयवत् हैं। 16. संसार के मुख्य कारण अज्ञान (अविद्या या मिथ्यात्व) और तृष्णा (आकांक्षा, लोभ) को दोनों ने स्वीकार किया है। बौद्धों का प्रतीत्य समुत्पाद (द्वादशनिदान) इसमें प्रमाण है। तृष्णा के जाते ही संसार चक्र समाप्त हो जाता है। जैनों में भी कर्मबन्ध के कारणों को गिनाते हुए मिथ्यात्व (अज्ञान) को सर्वप्रथम बतलाया 'मिथ्यादर्शनाविरति-प्रमादकषाय-योगा बन्ध-हेतवः'। इनमें कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ) का जब योग होता है, तभी कर्मबन्ध होता है। 'सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते सः बन्धः।' चारों में लोभ या तृष्णा या मोह सर्वप्रमुख है। इसके होने पर ही क्रोधादि होते हैं। इनके हटते ही व्यक्ति जीवन्मुक्त (अर्हत्) हो जाता है। 17. पुनर्जन्म, स्वर्ग-नरक, कर्मसिद्धान्त को दोनों स्वीकार करते हैं। 18. बौद्ध दर्शन में जिसे समाधि (सम्प्रज्ञात-असम्प्रज्ञात) कहा है उसे जैन दर्शन में ध्यान (धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान) कहा है। 19. अनेक आत्माओं को जैनों ने स्वीकार किया है, जो अपने पुरुषार्थ से परमात्मा बन सकता है। वह सापेक्ष दृष्टि से अनित्य होकर नित्य हैं। बौद्ध दर्शन अनात्मवादी कहा जाता है, उनके यहाँ व्यक्ति पञ्च स्कन्धात्मक है, नित्य नहीं है। 20. दोनों में चतुर्विध सङ्घ (साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका) की व्यवस्था है। साधु को श्रमण, साध्वी को श्रमणी, गृहस्थ को श्रावक और गृहस्थिनी स्त्री को श्राविका कहा गया है। दोनों ने स्त्रियों को बराबरी का दर्जा दिया और साध्वी भी बनाया। 21. बुद्धत्व प्राप्ति में क्रमश: उत्तरोत्तर श्रेष्ठ चार भूमियाँ (पड़ाव) हीनयान में बतलाई हैं- श्रोतापन्न (मुक्तिमार्ग पर आरूढ), सकृदागामी (एक जन्म लेकर या कुछ काल बाद मोक्ष पाना), अनागामी और अर्हत् (जीवन्मुक्त)। महायान में प्रमुदिता आदि 10 भूमियाँ गिनाई हैं। इसी तरह हीनयान में बोधिसत्व प्राप्ति के लिए 6 पारमितायें (दान, शील, क्षान्ति, वीर्य, ध्यान और प्रज्ञा) तथा महायान में 10 पारमितायें बतलाई हैं। जैन दर्शन में आत्मविकास के 14 गुणस्थान बतलाये हैं जो उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं। उनके क्रमश: नाम हैं- मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरत सम्यक्त्व, देशविरत प्रमत्त विरत, अप्रमत्त विरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्म साम्पराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगकेवली और अयोग केवली। इनमें प्रथम चार गुणस्थान अव्रती श्रावक (गृहस्थ) के हैं। पाँचवाँ अणुव्रती श्रावक का है। इसके बाद के सभी गुणस्थान मुनि (साधु) के हैं। साधु छठे और सातवें गुणस्थान में प्रायः रहते हैं। आगे 12वें तक ध्यान की अवस्थायें हैं। 13-14वाँ गुणस्थान जीवन्मुक्त अर्हन्तों का है। आठवें से 12वें तक दो मार्ग 243