________________ हैं उपशम मार्ग (8 से 11) और क्षयिक मार्ग (8 से 12) / उपशम मार्ग वाला पतित होकर छठे या पहले गुणस्थान तक गिर सकता है। क्षयिक मार्ग वाला गिरता नहीं है, अर्हतत्त्व तक जाता है। 22. कमों का विभाजन बौद्ध दर्शन में कुशल-अकुशल और अव्याकृत के रूप में मिलता है जिसे जैन दर्शन में पुण्य__ पाप कर्म के रूप में विभक्त किया है। घाति-अघाति के रूप में भी कमों का विभाजन है। ज्ञानावरणादि 8 भेद भी हैं। 23. मुक्त या निर्वाण होने पर बौद्ध दर्शन में केवल दुःखाभाव कहा है जबकि जैन धर्म में दुःखाभाव तथा अतीन्द्रिय अनन्त चतुष्टय (अनन्त सुख, अनन्त वीर्य, अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन) की प्राप्ति रूप कहा है। 24. बौद्ध धर्म में 'जीव' को 'पुद्गल' कहा है जबकि जैनदर्शन में 'पुद्गल' शब्द जीव (चेतन-आत्मा) से भिन्न जड़ तत्त्व के लिए प्रयुक्त है। 25. महावीर और बुद्ध दोनों को केवलज्ञान या बोधि की प्राप्ति वृक्षतल में हुई थी। 26. जैन धर्म में कठोर तपस्या तो है परन्तु आवश्यक नहीं। चित्त की निर्मलता की प्रधानता होने से एक प्रकार से बौद्धों की तरह मध्यम मार्ग ही है। 27. याज्ञिक हिंसा तथा जन्मनः जातिवाद का खण्डन दोनों में है। बाह्य क्रियाओं की अपेक्षा आभ्यन्तर भावों का प्रधान्य भी दोनों में है। बाद में बाह्य क्रियाओं को बोलबाला दोनों धर्मों में समाविष्ट हो गया। 28. महायानी बौद्ध धर्म में स्वीकृत परमार्थ सत्य और संवृत्ति सत्य की तुलना जैनों के निश्चयनय और व्यवहारनय से की जा सकती है। इससे स्याद्वाद सिद्धान्त का पोषण होता है। विज्ञानाद्वैत का आलय विज्ञान (बीजरूप) और प्रवृत्तिविज्ञान (बाह्य वस्तु का ज्ञान) भी स्याद्वाद की ओर सङ्केत करता है। 29. जैनाचार्य यशोविजय जी ने बौद्धों के क्षणिकवाद को ऋजुसूत्र नय में स्थान देकर समादर किया है। 30. जैनों ने (प्रत्यक्ष और परोक्ष) दो प्रकार के प्रमाण मानकर परोक्ष के अन्तर्गत स्मृति, तर्क, प्रत्यभिज्ञान, अनुमान और आगम को भी प्रमाण माना है। बौद्ध दर्शन में प्रत्यक्ष (स्वलक्षण) और अनुमान (सामान्य विषय ग्राही) ये दो प्रमाण माने हैं। जैन दर्शन में प्रमाण को सामान्य-विशेष उभय विषयक कहा है। परन्तु बौद्ध ऐसा नहीं मानते। 31. जैन दर्शन में और बौद्ध दर्शन में ज्ञान को प्रमाण रूप माना है। इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष आदि को प्रमाण नहीं माना। बौद्ध दर्शन में स्वपर व्यवसायात्मक ज्ञान को प्रमाण नहीं माना है जबकि जैन दर्शन में स्व पर व्यवसायात्मक (निश्चयात्मक) ज्ञान को प्रमाण माना है। अत: बौद्धों ने प्रत्यक्ष प्रमाण को निर्विकल्पक कहा है। जैन दर्शन में उसे दर्शन कहा है ज्ञान सविकल्पक ही होता है। 32. बौद्ध प्रमाण और प्रमाणफल में अभेद मानते हैं जबकि जैन भेदाभेद मानकर ज्ञान के साथ अज्ञान निवृत्ति को भी फल मानते हैं। 33. जैन हेतु का लक्षण हेतु और साध्य में अविनाभाव सम्बन्ध या अन्यथानुपपत्ति (साध्य के बिना हेतु का न पाया जाना) को मानते हैं। पक्ष सत्व, सपक्षसत्व और विपक्षव्यावृतत्व रूप त्रैरूप्य हेतु को लक्षण में देना आवश्यक नहीं मानते, जबकि बौद्ध त्रैरूप्य हेतु के द्वारा असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक हेत्वाभासों का निराकरण करना चाहते हैं। जैनों का कहना है कि अविनाभाव सम्बन्ध (व्याप्ति) से ही जब कार्य सिद्ध हो जाता है तो त्रैरूप्य कहने की आवश्यकता ही नहीं है। 34. दोनों ने अपने आराध्यों को स्वस्वीकृत सिद्धान्तानुसार ब्रह्मा, विष्णु, महेश, स्वयम्भू आदि नामों से सम्बोधित किया 35. जैन दर्शन अवतारवादी नहीं है, जबकि महायान में भगवान् बुद्ध को लोक कल्याणार्थ करुणावश अवतरण हैं, किसी ईश्वर आदि के अवतार नहीं हैं। हीनयान में और जैन दर्शन में व्यक्तिगत निर्वाण को प्रमुखता से निरूपित किया गया है। महायान में सबके निर्वाण की बात है केवल स्वमुक्ति तो स्वार्थ है।। इस तरह दोनों दर्शनों में तुलना की दृष्टि से ये कुछ स्थूल बिन्दु बतलाए गए हैं। इनका सूक्ष्म चिन्तन अपेक्षित है। लक्ष्य दोनों का एक है 'दुःखनिवृत्ति' और दुःखनिवृत्ति के लिए आवश्यक है सभी प्रकार की आकांक्षाओं को त्यागकर वीतरागदृष्टि बनाना। भगवान बुद्ध ने आत्मा में राग की तीव्रता को देखकर अनात्मवाद को अपनाया जबकि महावीर ने आत्मज्ञान को प्रमुखता देकर राग विरक्ति का उपदेश दिया। 244