________________ पापा - बेटे ! यदि धर्मद्रव्य (गति द्रव्य Lumoniferous-ether) नहीं होगा तो क्रियावान् द्रव्यों (पुद्गल और जीव) में गतिशीलता कैसे बनेगी? इसी प्रकार ठहरने की स्थिति में ठहरने में सहायक भी कोई होना चाहिए और उसका नाम है 'अधर्म द्रव्य' (स्थितिद्रव्य Field) / ये दोनों बलात् न तो क्रिया कराते हैं और न ठहराव अपितु उदासीन भाव से क्रिया और स्थिति में सहायक (निमित्त) मात्र हैं और ये दोनों सर्वलोक में व्याप्त हैं। यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो सदा गमन क्रिया या स्थिरता बनी रहेगी यदि 'काल' (Time) को नहीं मानेंगे तो द्रव्यों में होने वाले परिवर्तन की व्याख्या सम्भव नहीं है। सदा एकरूपता बनी रहेगी। इसी तरह आकाश (space) को न मानते पर ये सभी द्रव्य कहाँ रहते ? आकाश अनन्त है, एक है और व्यापक है। 'काल' रत्नों की राशि की तरह परमाणुओं के रूप में समस्त लोकाकाश (आकाश का वह क्षेत्र जहाँ पुद्गल आदि सभी द्रव्यों से युक्त सृष्टि है) में है। इसी काल के कारण वस्तुओं में परिवर्तन होता है और वर्तमान, भूत और भविष्य काल का व्यवहार होता है। संदीप- क्या संसार को बनाने वाला ईश्वर नहीं है? ईश्वर को मान लेने पर उससे ही गति, स्थिति आदि मान लेंगे। (मनोरमा मम्मी का प्रवेश) मनोरमा- आप दोनों क्या कर रहे हैं? स्कूल नहीं जाना क्यों ? भोजन ठंडा हो रहा है। पापा - चलो बेटे, मम्मी ठीक कह रही हैं। हम आगे कल विचार करेंगे। (सभी चले जाते हैं।) (संदीप और नैयायिक कुमार परस्पर बातें कर रहे हैं। इसी बीच संदीप के पापा जी का प्रवेश। संदीप और नैयायिक कुमार उठकर अभिवादन करते हैं और यथास्थान बैठ जाते हैं) संदीप- पापा जी। आपने कहा था कि इस संसार में मूलत: छ: द्रव्य हैं-पुद्गल (रूपी अचेतन), चेतन (आत्मा या जीव), धर्म (गति-निमित्त कारण), अधर्म (स्थिति-निमित्त कारण), आकाश (आश्रय हेतु) और काल (परिवर्तन हेतु) / इनके अलावा सृष्टिकर्ता ईश्वर को मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। सो कैसे ? हमारे मित्र नैयायिक कुमार का कहना है कि ईश्वर को स्वीकार किये बिना संसार व्यवस्था बन ही नहीं सकती। मैं इन्हें साथ ले आया हूँ। कृपया बतलाएँ। पापा- बेटे ! ईश्वर न तो इस जगत् को बनाने वाला है, न दण्ड देने वाला है और न कृपा करने वाला है। अर्थात् ईश्वर न जनक है, न संहारक है और न पालनकर्ता है। नैयायिक कुमार-'बिना कर्ता के कार्य नहीं होता' ऐसा नियम है। पेड़-पौधे आदि कार्य (उत्पन्न होते) हैं और उनका कर्ता हममें से कोई दिखलाई नहीं पड़ता है। अत: उनका कर्ता तो ईश्वर को मानना पड़ेगा। जैसे हम देखते हैं कि कुम्हारे घड़े को बनाता है, न्यायाधीश अपराधी को दण्ड देता है और राजा प्रजा का पालन करता है, उसी प्रकार सर्वशक्ति सम्पन्न, सर्वव्यापक, दयालु और सर्वज्ञ कोई एक ईश्वर है, जो संसार के समस्त कार्यों का सञ्चालन अधिष्ठाता के रूप में करता है। अन्यथा समय से सूर्योदय का होना, समय से ऋतुओं का आना आदि कुछ भी नहीं होगा। पाप कर्मों का और पुण्य कर्मों का फल मृत्यु के बाद कौन देगा? पेड़-पौधों, जन्तुओं, पशुओं और मनुष्यों के शरीर की व्यवस्थित संरचना कैसे होगी? पापा - नैयायिक जी! आपका यह चिन्तन सामान्य धरातल का है क्योंकि इन कार्यों के लिए ईश्वर मानने पर कई असङ्गतियाँ होंगी। जैसे-जब ईश्वर दयालु है तो संसार में प्राणियों को दुःख भोगने के लिए क्यों उत्पन्न करता है? 'प्राणी पूर्व बद्ध कर्मों (पाप-पुण्य) से दुःखी और सुखी होता है' ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि सृष्टि के प्रारम्भ में कोई भी प्राणी न तो पापी था और न पुण्यात्मा। ईश्वर जब सर्वशक्ति सम्पन्न है तो उसे अपनी क्रीड़ा (लीला) हेतु प्राणियों को कष्ट नहीं देना चाहिए। सबको अपने जैसा बना लेना चाहिए, सबके मन में अच्छे विचार भर देवे। सर्वकल्याण की भावना से वह ऐसा क्यों नहीं करता? क्या इसमें कोई रुकावट डालता है? यदि पूर्व कर्म रुकावट हैं तो ईश्वर सर्वशक्ति सम्पन्न और दयालु कैसे हुआ? वह तो कर्मों के अधीन हो गया, जैसे लोक में राजा के अधीनस्थ कर्मचारी। यदि ईश्वर 'पूजा' से संतुष्ट होता है तो वह कैसा ईश्वर? वह तो आजकल के घूसखोर अफसरों जैसा राग-द्वेष युक्त हो गया। यह बात आपको भी अभीष्ट नहीं है। (नाश्ते की प्लेटें लिए हुए मनोरमा जी का प्रवेश)। मनोरमा-नाश्ता कर लो। भूखे पेट भजन नहीं होता। आज मन्दिर में पूजा के बाद रसगुल्ले बँटे हैं। आप सब लोग लेवें। मैं जाती हूँ। पापा- अरी सौभाग्यवती ! तुम भी आज यहीं बैठो। सब मिलकर नाश्ता करेंगे। 249