________________ जो अवश्यकरणीय (नियम से करने योग्य) हों उन्हें 'नियम' कहते हैं। नियम से करने योग्य हैं सम्यग् ज्ञान, दर्शन और चारित्र। विपरीत ज्ञान, दर्शन और चारित्र का परिहार करने के लिए नियम शब्द के साथ 'सार' पद का प्रयोग किया गया है। इस तरह नियमसार ज्ञान, दर्शन और चारित्र-स्वरूप नियम निर्वाण का कारण (मोक्षोपाय) है तथा उसका फल परम निर्वाण-प्राप्ति है। इसमें 16 अधिकार हैं। इस ग्रन्थ के लिखने का प्रयोजन ग्रन्थकार ने यद्यपि निजभावना बतलाया है परन्तु प्रवचन- भक्ति भी इसका प्रयोजन रहा है। ग्रन्थारम्भ करते हुए ग्रन्थकार 'जिन' को नमस्कार करके केवली और श्रुतकेवलियों के द्वारा कथित नियमसार के कहने का सङ्कल्प करते हैं।" पश्चात् व्यवहार और निश्चय दोनों नयों की दृष्टि से रत्नत्रय का कथन करते हैं। प्रथम जीवाधिकार के अन्त में ग्रन्थकार निश्चय-व्यवहार तथा द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक दोनों प्रकार के नय-विभाजनों का समन्वय करते हैं - कत्ता भोत्ता आदा पोग्गलकम्मस्स होदि ववहारा। कम्मजभावेणादा कत्ता भोत्ता द णिच्छयदो।। 18 / / दव्वत्थिएण जीवा वदिरित्ता पुव्वभणिदपज्जाया। पज्जयणयेण जीवा संजुत्ता होति दुविहेहिं।। 19 / / दशम परम भक्त्याधिकार के प्रारम्भ में ग्रन्थकार व्यवहारनय की अपेक्षा से उसकी प्रशंसा में लिखते हैं-'जो श्रावक अथवा मुनि रत्नत्रय में भक्ति करता है अथवा गुणभेद जानकर मोक्षगत पुरुषों में भक्ति करता है उसे निवृत्ति- भक्ति (निर्वाणभक्ति) होती है। 28 अन्त में ग्रन्थकार अपनी सरलता को बतलाते हुए हृदय के भाव को प्रकट करते हैं-'प्रवचन की भक्ति से कहे गये नियम और नियमफलों में यदि कुछ पूर्वापरविरोध हो तो समयज्ञ (आगमज्ञ) उस विरोध को दूर करके सम्यक् पूर्ति करे।29 किन्तु ईर्ष्याभाव से इस सुन्दरमार्ग की यदि कोई निन्दा करे तो उनके वचन सुनकर जिनमार्ग के प्रति अभक्ति न करे क्योंकि यह जिनोपदेश पूर्वापरदोष से रहित है। यहाँ पूर्वापरविरोध-परिहार की बात करके ग्रन्थकार दोनों नयों का समन्वय करना चाहते हैं, इसे सुनकर ईर्ष्या भाव उत्पन्न होने की सम्भावना को ध्यान में रखते हुए ग्रन्थकार व्यवहार नयाश्रित भक्ति को न छोड़ने की बात करते हैं। इस तरह ग्रन्थकार सरलहृदय से किसी एक नय का ऐकान्तिक ग्रहण अभीष्ट न मानते हुए पूर्वापरविरोधरहित स्याद्वाद का सिद्धान्त ही प्रतिपादन करना चाहते हैं। 5. अष्टपाहुड दर्शनादि सभी पाहुडों के प्रारम्भिक पद्यों में वर्द्धमान आदि तीर्थङ्करों को नमस्कार किया गया है। शीलपाहुड में शील और ज्ञान के अविरोध को बतलाते हुए लिखा है कि शील के बिना पञ्चेन्द्रिय के विषय ज्ञान को नष्ट कर देते हैं। अत: सही ज्ञान के लिए चारित्र अपेक्षित है। लिङ्गपाहुड में केवल बाह्यलिङ्ग से धर्मप्राप्ति मानने वालों को प्रतिबोधित किया गया है। इससे स्पष्ट है कि ग्रन्थकार का पथभ्रष्ट बाह्यलिङ्गी साधुओं को ही प्रतिबोधित करना मुख्य लक्ष्य रहा है। इस तरह इस ग्रन्थ में भी दोनों नयों का समन्वय देखा जा सकता है। 6. द्वादशानुप्रेक्षा इसका प्रारम्भ सिद्ध और चौबीस तीर्थङ्करों के नमस्कार से होता है। अन्तिम से पूर्ववर्ती दो गाथाओं (89-90) में अनुप्रेक्षाओं का माहात्म्य बताकर उनके चिन्तन से मोक्ष गये पुरुष को बारम्बार नमस्कार किया गया है। अन्तिम गाथा कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों के मर्मज्ञ किसी विद्वान् के द्वारा जोड़ी गई जान पड़ती है क्योंकि वहाँ 'जं भणियं कुन्दकुन्दमुणिणाहे' वाक्य का प्रयोग किया गया है जबकि पञ्चास्तिकाय की अन्तिम गाथा में 'मया भणियं, का प्रयोग किया गया है। द्वादशानुप्रेक्षा की पूरी अन्तिम गाथा इस प्रकार है - इदि णिच्छयववहारं जं भणियं कुन्दकुन्दमुणिणाहे। जो भावइ सुद्धमणो सो पावई परम-णिव्वाणं।।91।। इस गाथा में ग्रन्थकार के निश्चय-व्यवहार के समन्वय को स्पष्ट शब्दों में कहा गया है। 'सुद्धमणो' शब्द से यहाँ एकान्त आग्रहरहित वीतराग-हृदय का सङ्केत किया गया है। 238