________________ व्यवहारनय के बिना तो तीर्थ (व्यवहार मार्ग) का नाश हो जायेगा और निश्चयनय के बिना तत्त्व (वस्तु) का नाश हो जायेगा, क्योंकि जिनवचन को स्याद्वाद रूप माना गया है, एकान्तवादरूप नहीं। अत: जिनवचन सुनना, जिनबिम्बदर्शन आदि भी प्रयोजनीय हैं। ग्रन्थ का उपसंहार करते हुए आचार्य ने कहा है, 'जो पाखण्डी बहुत प्रकार के गृहस्थ आदि लिङ्गों मैं ममत्व करते हैं वे समयसार को नहीं जानते। व्यवहारनय दोनों (मुनि और गृहस्थ) लिङ्गों को इष्ट मानता है। यहाँ जो अलिङ्गी को मोक्षमार्ग निश्चय नय से कहा है वह विशुद्धात्मा की दृष्टि से कहा है। जो विशुद्ध आत्मा है जीव- अजीव द्रव्यों में से कुछ भी न तो ग्रहण करता है और न छोड़ता है। आगे कहा है - जो समयपाहुडमिणं पडिहणं ये अत्थ-तच्चदो णाउं। अत्थे ठाही चेया सो होही उत्तम सोक्खं / / गाथा 415 जो इस समयप्राभत को पढकर अर्थ एवं तत्त्व को जानकर इसके अर्थ में स्थित होगा वह उत्तम सुख प्राप्त करेगा यहाँ पडिहूणं (पढ़कर), अत्थच्चदो गाउँ (अर्थ तत्त्व को जानकर) और अत्थे ठाही चेया (अर्थ में स्थित आत्मा) पद चिन्तनीय हैं जो निश्चय व्यवहार के समन्वय को ही सिद्ध करते हैं। शुद्ध निश्चयनय तो स्वस्वरूप स्थिति है वहाँ कुछ करणीय जरूरी नहीं होता, जबकि संसारी को करणीय कर्म भी जानना जरूरी है। 3. प्रवचनसार यह ज्ञान, ज्ञेय और चारित्र इन तीन अधिकारों में विभक्त है। इसकी प्रारम्भिक पाँच गाथाओं में तीर्थङ्करों, सिद्धों, गणधरों, उपाध्यायों और साधुओं को नमस्कार किया गया है तथा उनके विशुद्ध दर्शन-ज्ञानप्रधान आश्रय को प्राप्त करके निर्वाण सम्प्राप्ति के साधनभूत समताभाव को प्राप्त करने की कामना की गई है। इसके बाद सरागचारित्र, वीतरागचारित्र आदि का कथन किया गया है। तृतीय चारित्राधिकार का प्रारम्भ करते हुए ग्रन्थकार सिद्धों और श्रमणों को बारम्बार नमस्कार करके दुःखनिवारक, श्रमणदीक्षा लेने का उपदेश देते हैं। इसके बाद श्रमणधर्म स्वीकार करने की प्रक्रिया आदि का वर्णन करते हुए निश्चय-व्यवहाररूप श्रमणधर्म का विस्तार से कथन करते हैं। प्रसङ्गवश प्रशस्तराग के सन्दर्भ में कहा है रागो पसत्थभूदो वत्थुविसेसेण फलदि विवरीदं। णाणा भूमिगदाणि हि बीयाणि व सस्सकालम्मि // 255 / / अर्थात्-जैसे एक ही बीज भूमि की विपरीतता से विपरीत फलवाला देखा जाता है वैसे ही प्रशस्तरागरूप शुभोपयोग भी पात्र की विपरीतता से विपरीत फलवाला होता है। इससे सिद्ध है कि प्रशस्त राग पात्रभेद से तीर्थकर प्रकृति के बन्धादि के द्वारा मुक्ति का और निदानादि के बन्ध से संसारबन्ध का, दोनों का कारण हो सकता है। जयसेनाचार्य ने 254 वीं गाथा की व्याख्या करते हुए इसी अर्थ को स्पष्ट किया है-'वैयावृत्य गृहस्थों का मुख्य धर्म है। इससे वे खोटे ध्यानों से बचते हैं तथा 'साधु-सङ्गति से निश्चय-व्यवहार मोक्षमार्ग का ज्ञान प्राप्त होता है, पश्चात् परम्परया निर्वाणप्राप्ति होती है। 23 उपसंहाररूप 274 वीं गाथा में शुद्धोपयोगी मुनि को सिद्ध कहकर नमस्कार किया गया है तथा 275 वी गाथा में ग्रन्थ का फल बतलाते हुए लिखा है - बुज्झदि सासणमेयं सागारणगार-चरियया जुत्तो। जो सोपवयणसारं लहुणा कालेण पप्पोदि।। 3.75 / / अर्थात्-जो गृहस्थ और मुनि की चर्या से युक्त होता हुआ (अर्हन्त भगवान के) इस शासन (शास्त्र) को जानता है वह शीघ्र ही प्रवचन के सार (मोक्ष) को प्राप्त कर लेता है। यहाँ 'सागारणगारचरियया' शब्द ध्यान देने योग्य है जिसकी व्याख्या करते हुए जयसेनाचार्य ने लिखा है- 'अभ्यन्तररत्नत्रयानुष्ठानमुपादेयं कृत्वा बहिरङ्गरत्नत्रयानुष्ठानं सागारचर्या श्रावकचर्या / बहिरङ्गरत्नत्रयाधारेणाभ्यान्तर-रत्नत्रयानुष्ठानमनगारचर्या प्रमत्तसंयतादितपोधनचर्येत्यर्थः।' / इस तरह प्रवचनसार में विशेष रूप से व्यवहार-निश्चयरूप मुनिधर्म का प्रतिपादन करते हुए ग्रन्थकार दोनों नयों का सम्यक् समायोजन चाहते हैं। ज्ञान और ज्ञेय अधिकार में भी निश्चय-व्यवहार अथवा द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक दोनों नयों का समन्वय करते हुए वस्तु तत्त्व का विवेचन करते हैं। 4. नियमसार 237