________________ को प्रोत्साहित करने में पूर्ण सक्षम है यदि निष्पक्ष दृष्टि से विचार किया जाय भगवान् महावीर का यह सन्देश न केवल वर्तमान युग के लिए ज्योति है अपितु भविष्य के लिए भी प्रकाश-स्तम्भ है। मानवीय मूल्यों (धार्मिक मूल्यों) के समझाने के लिए स्वर्ग-नरक के उदाहरण अपर्याप्त हैं। उन्हें समाजविज्ञान तथा भौतिक विज्ञान और मनोविज्ञान से बतलाना होगा। आचार्य कुन्दकुन्द के दर्शन में निश्चय और व्यवहार-नय दिगम्बर जैन परम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द का स्थान सर्वोपरि है। उन्होंने भगवान् महावीर की वाणी का मन्थन करके हमें नवनीत प्रदान किया है। भगवान् महावीर ने जिस वीतरागता का उपदेश दिया था उसे जब बाह्यलिङ्ग के रूप में समझा जाने लगा तो कुन्दकुन्द ने महावीर दर्शन के बाह्य और आभ्यन्तर वीतराग भाव को स्पष्ट किया। आभ्यन्तर के वीतराग भाव को प्रकट करना उनका प्रमुख लक्ष्य था, अत: उन्होंने देशकालानुरूप उन्हीं बातों का अधिक व्याख्यान किया है। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि उन्हें बाह्य वीतरागभाव अभीष्ट नहीं था। वस्तुतः उन्होंने बाह्य और आभ्यन्तर वीतरागभावों के उपदेशों का व्यवहार और निश्चय उभय नयों के द्वारा सम्यक् आलोडन करके उन्हें जीवन में तथा स्वरचित ग्रन्थों में समावेश किया है। उनके ग्रन्थों के अन्तःसाक्ष्य से तथा उनकी स्वयं की जीवनशैली से उनकी निश्चयव्यवहार की समन्वयदृष्टि स्पष्ट परिलक्षित होती है। सामान्य रूप से लेखक अपनी रचनाओं के प्रारम्भिक अंशों में अपने अनुभवों को भूमिकारूप में स्थापित करता है और अन्त में उपसंहार के रूप में उन्हें परिपुष्ट करता है। अतः उन्हीं अंशों को यहाँ प्रमुख रूप से माध्यम बनाकर आचार्य कुन्दकुन्द की समन्वयदृष्टि का प्रतिपादन किया गया है। आचार्य कुन्दकुन्द की मान्य रचनायें हैं-1. पञ्चास्तिकायसंग्रह, 2. समयसार, 3. प्रवचनसार, 4. नियमसार, 5. अष्टपाहुड, 6. द्वादशानुप्रेक्षा और 7. भक्तिसंग्रह। 'रयणसार' के सन्दर्भ में विद्वानों का मतभेद अधिक है। 1. पञ्चास्तिकायसंग्रह यह ग्रन्थ दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त है। दोनों श्रुतस्कन्धों का प्रारम्भ ग्रन्थकार 'जिन' स्तुतिपूर्वक करते हैं। यह नमस्कार निश्चय ही भक्तिरूप व्यवहारनय का आश्रय लेकर किया गया है। इसके प्रथम श्रुतस्कन्ध में षड्द्रव्यों का और द्वितीय श्रुतस्कन्ध में नव पदार्थों एवं मोक्षमार्ग का वर्णन है। प्रथम श्रुतस्कन्ध का उपसंहार करते हुए उन्होंने लिखा है-'प्रवचन के सारभूत पञ्चास्तिकायसंग्रह को जानकर जो रागद्वेष को छोड़ देता है वह दुःखों से मुक्त हो जाता है। इसके अर्थ को जानकर तदनुगमनोद्यत, विगतमोह और प्रशमित राग-द्वेष वाला जीव पूर्वापर-बन्धरहित हो जाता है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध में तत्त्वश्रद्धानादिरूप व्यवहार-मोक्षमार्ग का कथन करके निश्चय-मोक्षमार्ग का कथन करते हुए लिखा है-'रत्नत्रय से समाहित (तन्मय) हुआ आत्मा ही निश्चय से मोक्षमार्ग है जिसमें वह अन्य कुछ भी नहीं करता है और न कुछ छोड़ता ही है / यह कथन निश्चय ही केवली की ध्यानावस्था को लक्ष्य करके कहा गया है। इसके आगे बतलाया गया है कि अर्हदादि की भक्ति से बहुत पुण्यलाभ एवं स्वर्गादि की प्राप्ति होती है। यहीं अर्हदादि की भक्ति से कर्मक्षय का निषेध और निर्वाण-प्राप्ति की दूरी को भी बतलाया है, भले ही वह सर्वागमधारी और संयम-तपादि से युक्त क्यों न हो। यह कथन भी श्रुतकेवली या छठे से ऊपर के गुणस्थान वालों को लक्ष्य करके कहा गया है। यहीं पर यह भी कहा गया है कि मोक्षाभिलाषी पुरुष निष्परिग्रही और निर्ममत्व होकर सिद्धों में भक्ति करता है और उससे वह निर्वाण प्राप्त करता है। यहाँ टीकाकारों ने 'सिद्धेसु' का अर्थ शुद्धात्म द्रव्य में विश्रान्तिरूप पारमार्थिक सिद्ध भक्ति किया है। गाथा 172 की व्याख्या में अमृतचन्द्राचार्य और जयसेनाचार्य ने केवल निश्चयावलम्बी उन जीवों को लक्ष्य करके कहा है (जो वस्तुतः निश्चय नय को नहीं जानते हैं)- 'कोई शुभभाववाली क्रियायों को पुण्यबन्ध का कारण मानकर अशुभ भावों में वर्तते हुए, (कुछ वनस्पतियाँ कीटभक्षी हैं तथा कुछ तो नरभक्षी भी हैं)। ऐसी वनस्पतियों की भाँति केवल पापबन्ध को करते हुए भी अपने में उच्च शुद्धदशा की कल्पना करके, स्वच्छन्द और आलसी हैं णिच्छयणयालम्बंता णिच्छयदो णिच्छयं अयाणंता। 235